________________ होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए / आचार्य की (9) अव्यक्त दोष - दोषों को पूर्णरूप से न बताकर उनकी अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की अनुपस्थिति में - आलोचना करना अव्यक्त दोष है। सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी अनुपस्थिति में (10) तत्सेवी दोष - जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी स्थिति में वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है / बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान - वेश धारक साधु के समक्ष क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे आलोचना करे / ' उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा को प्रायश्चित्त देने का अधिकार नहीं है, दूसरे ऐसा व्यक्ति उचित पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित प्रायश्चित्त भी नहीं देपाता / हो तो उसके समक्ष आलोचना करे / उसके अभाव में सम्यक् भावित चैत्यों के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीवों के द्वारा उपास्य इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के सन्दर्भ में जिन प्रतिमा के समक्ष आलोचना करे / यदि सम्यक् भावित चैत्य उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में दोषों पर गहराई से विचार किया है / इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना निशीथ आदि में पायी जाती है / पाठकों से उसे वहाँ देखने की करे / ' अनुशंसा की जाती है। आलोचना सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में यह भी तथ्य ध्यान आलोचना योग्य कार्यदेने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो / स्थानांग, मूलाचार, जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का कार्य हैं, वे तीर्थंकरों द्वारा सम्पादित होने पर तो निर्दोष होते हैं, उल्लेख हुआ है। किन्तु छद्मस्थ श्रमणों द्वारा इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से (1) आकम्पित दोष - आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर ही मानी गयी है / जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है / कुछ विद्वानों के ग्रहण, गमनामन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवंदन या चैत्यवंदन आदि अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है काँपते हुए आलोचना करना, सभी क्रियाएं आलोचना के योग्य हैं / इन्हें आलोचना योग्य मानने जिससे प्रायश्चित्त दाता कम से कम प्रायश्चित्त दे / का तात्पर्य यह है कि साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगता पूर्वक अप्रमत्त होकर किया है या (2) अनुमानित दोष - अल्प प्रायश्चित्त या दण्ड मिले इस भय से नहीं / क्योंकि प्रमाद के कारण दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना करना अनुमानित आचार्य से सौ हाथ की दरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, दोष है। वे भी आलोचना के विषय माने गये हैं / इन कार्यों की गुरु के (3) अदृष्ट - गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया. समक्ष आलोचना पर ही साधक को शुद्ध माना जाता है। इसका हो उसकी आलोचना करना और अदृष्ट दोषों की आलोचना न उद्देश्य यह है कि साधक गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर करना ही अदृष्ट दोष है। रहकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये हैं / इसके साथ (4) बादर दोष - बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे दोषों ही किसी कारणवश या अकारण ही स्वगण का परित्याग कर की आलोचना न करना बादर दोष है / परगण में प्रवेश पर अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना का विषय माना गया है / ईर्या आदि पांच समितियों (5) सूक्ष्म दोष - छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और बड़े और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के दोषों को छिपा जाना, सूक्ष्म दोष है। विषय हैं / यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो (6) छन्न दोष- आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे पूरी आलोचना के विषय हैं, वे देश - काल - परिस्थिति और व्यक्ति के तरह सुन ही न सके छन्न दोष है / कुछ विद्वानों के अनुसार आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आचार्य के समक्ष मैनें यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने आदि प्रायश्चित्त के योग्य भी हो सकते हैं। से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले प्रतिक्रमण - प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है / अपराध लेना छन्न दोष है। या नियमभंग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस (7) शब्दाकुलित दोष - कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना लौट आना / अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा करना करना जिसे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, शब्दाकुलित ही प्रतिक्रमण है / दूसरे शब्दों में दोष है / दूसरे शब्दों में भीड-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के आपराधिक स्थिति से अनपराधित सामने आलोचना करना दोष पूर्ण माना गया है / स्थिति में लौट आना ही प्रतिक्रमण (8) बहुजन दोष - एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष करते हैं / आलोचना और प्रतिक्रमण आलोचना करना और उनमें जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित्त दे में अन्तर यह है कि आलोचना में उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है। अपराध को पुनः सेवन न करने का व्यवहारसूत्र 9/9/33 / (अ) स्थानांग, 10/70 (ब) मूलाचार, 11/15 जीतकल्प 6, देखे-जीतकल्पभाष्य गाथा 731-1810 श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Intemational दृष्टि जैसी सृष्टि सदा, दिखती है सब ठौर / जयन्तसेन दृष्टि विमल, रखो तुम चंहु और brary.org For Private & Personal Use Only