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________________ 495 जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान प्रयोजनभेद से इसका स्वरूप बदलता भी है। जैसे: विविधदुःखविनाशी दुष्टदारिद्रयपाशी ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने अन्तरायकर्म समलोच्छेदाय श्रीवीर कलिमलभवक्षाली भव्यजीवकृपाली। जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा। असुरमदनिवारी देवनागेन्द्रनारी ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने अनन्तान्तज्ञानशक्तये श्री समकितव्रतदृढ जिनमुनिपदसेव्यं ब्रह्मपुण्याब्धिपूज्यम् / 11 // करणाय/प्राणातिपातविरमणव्रतग्रहणाय जलं यजामहे स्वाहा। ॐ आँ क्रीँ ह्रीं मन्त्ररूपायै विश्वविघ्नहरणायै सकलजन-हितकारिकायै इसी प्रकार अष्टद्रव्यों के समर्पण में भी प्रयोजन की भिन्नता श्री पद्मावत्यै जयमालार्थं निर्वापामीति स्वाहा / परिलक्षित होती है: लक्ष्मीसौभाग्यकरा जगत्सुखकरा बन्ध्यापि पुत्रार्पिता ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशाय जलं निर्वापमिति स्वाहा। नानारोगविनाशिनी अघहरा (त्रि) कृपाजने रक्षिका / ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदनं निर्वापमिति स्वाहा। रङ्कानां धनदायिका सुफलदा वाञ्छार्थिचिन्तामणि: ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वापमिति स्वाहा। त्रैलोक्याधिपतिर्भवार्णवत्राता पद्मावती पातु वः // 12 // ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापमिति स्वाहा। इत्याशीर्वादः ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वापमिति स्वाहा। स्वस्तिकल्याणभद्रस्तु क्षेमकल्याणमस्तु वः / यावच्चन्द्रदिवानाथौ तावत् पद्मावतीपूजा / / 13 / / ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अकर्मदहनाय धूपं निर्वापमिति स्वाहा। ये जना: पूजन्ति पूजां पद्मावती जिनान्विता / ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वापमिति स्वाहा। ते जनाः सुखमायान्ति यावन्मेरुर्जिनालयः / / 14 / / इन पूजा मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा से इन प्रस्तुत स्तोत्र में पद्मावती पूजन का प्रयोजन वैयक्तिक एवं सभी पूजा-विधानों का अन्तिम प्रयोजन तो आध्यात्मिक विशुद्धि ही लौकिक एषणाओं की पूर्ति तो है ही, इससे भी एक कदम आगे बढ़कर माना गया है। यह माना गया है कि जलपूजा आत्मविशुद्धि के लिए की इसमें तन्त्र के मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की पूर्ति की जाती है। चन्दनपूजा का प्रयोजन कषायरूपी अग्नि को शान्त करना आकांक्षा भी देवी से की गई है। प्रस्तुत पद्मावतीस्तोत्र का निम्न अंश अथवा समभाव में अवस्थित होना है। पुष्पपूजा का प्रयोजन अन्त:करण इसका स्पष्ट प्रमाण हैमें सद्भावों का जागरण है। धूपपूजा कर्मरूपी इन्धन को जलाने के लिये ॐ नमो भगवति! त्रिभुवनवशंकारी सर्वाभरणभूषिते पद्मनयने! है, तो दीपपूजा का प्रयोजन ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करना है। पद्मिनी पद्मप्रमे! पद्मकोशिनि! पद्मवासिनि! पद्महस्ते! ह्रीं ह्रीं कुरु कुरु अक्षतपूजा का तात्पर्य अक्षतों के समान कर्म के आवरण से रहित अर्थात् मम हृदयकार्यं कुरु कुरु, मम सर्वशान्तिं कुरु कुरु, मम सर्वराज्यवश्यं निरावरण होकर अक्षय पद प्राप्त करना है। नैवेद्यपूजा का तात्पर्य चित्त कुरु कुरु, सर्वलोकवश्यं कुरु कुरु, मम सर्व स्त्रीवश्यं कुरु कुरु, मम में आकांक्षाओं और इच्छाओं की समाप्ति है। इसी प्रकार फलपूजा सर्वभूतपिशाचप्रेतरोषं हर हर, सर्वरोगान् छिन्द छिन्द, सर्वविघ्नान् भिन्द मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये की जाती है। इस प्रकार जैन पूजा की भिन्द, सर्वविर्ष छिन्द छिन्द, सर्वकुरुमगं छिन्द छिन्द, सर्वशाकिनी छिन्द विधि में और हिन्दूभक्तिमार्गीय और तांत्रिकपूजा विधियों में बहुत कुछ छिन्द, श्रीपार्श्वजिनपदाम्भोजभृङ्गि नमोदत्ताय देवी नमः। ॐ ह्रां ह्रीं ह्र हाँ समरूपता होते हुए भी उनके प्रयोजन भिन्न रूप में माने गये हैं। जहाँ ह्र: स्वाहा। सर्वजनराज्यस्त्रीपुरुषवश्यं सर्व 2 ॐ आँ काँ ऐं क्लीं ह्रीं सामान्यतया हिन्दू एवं तांत्रिकपूजा विधियों का प्रयोजन इष्टदेवता को देवि! पद्मावति। त्रिपुरकामसाधिनी दर्जनमतिविनाशिनी त्रैलोक्यक्षेभिनी प्रसन्न कर उसकी कृपा से अपने लौकिक संकटों का निराकरण करना श्रीपार्श्वनाथोपसर्गहारिणी क्लीं ब्लू मम दुष्टान् हन हन, मम सर्वकार्याणि रहा है। वहाँ जैन पूजा-विधानों का प्रयोजन जन्म-मरण रूप संसार से साधय साधय हुं फट् स्वाहा।। विमुक्ति ही रहा। दूसरे, इनमें पूज्य से कृपा की कोई आकांक्षा भी नहीं आँ क्रीँ ह्रीं क्लीं हसों पद्म! देवि! मम सर्वजगद्वश्यं कुरु कुरु, होती है मात्र अपनी आत्मविशुद्धि की आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है, सर्वविघ्नान् नाशय नाशय, पुरक्षोभं कुरु कुरु, ह्रीं संवौषट् स्वाहा। क्योंकि दैवीयकृपा (grace of God) का सिद्धान्त जैनों के कर्म सिद्धान्त ॐ आँ क्रों हाँ द्राँ द्रीं क्लीं ब्लूं सः हळ पद्मावती सर्वपुरजनान् के विरोध में जाता है। क्षोभय क्षोभय, मम पादयोः पातय पातय, आकर्षणीं ह्रीं नमः। जैन पूजा-विधान और लौकिक एवं भैतिक मंगल की कामना // पाचय हं ब्भं ब्भां हं क्ष्वी हंस ब्भं वह्य यहः क्षां क्षीं झू झें : क्षों क्षं क्ष: यहाँ भी ज्ञातव्य है कि तीर्थंकरों की पूजा-उपासना में तो यह यह क्षिं हाँ ह्रीं ह्र हे हों हौं हः हिः हिं द्रां द्रिं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते आत्मविशुद्धिप्रधान जीवनदृष्टि कायम रही, किन्तु जिनशासन के रक्षक श्रीमती श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु, पुष्टिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा।। देवों की पूजा-उपसना में लौकिकमंगल और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना किसी न किसी रूप में जैनों में भी आ गई। इस कथन __ ज्वालामालिनीस्तोत्र की पुष्टि भैरवपद्मावती कल्प में पद्मावती के निम्न मन्त्र से होती है-१२ इससे यह फलित होता है कि तान्त्रिक साधना के षट्कर्मों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211018
Book TitleJain Dharm me Puja Vidhan aur Dharmik Anushthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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