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________________ जैन धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान 493 'दसलाक्षणिकव्रतोद्यापन', सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय, जयसागर का रखने के लिए जैन धर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें जो 'रविव्रतोद्यापन', ब्रह्मजिनदास का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रतपूजन', अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में सहायक हों। निवृत्तिप्रधान अध्यात्मवादी 'मेघामालोद्यापनपूजन' (१५वीं शती), विश्वसेन का षण्नवतिक्षेत्रपाल एवं कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिए यह पूजन (१६वीं शती), बुधवीरु 'धर्मचक्रपूजन' एवं 'वृहद्धर्मचक्रपूजन' न्याय संगत तो नहीं था, फिर भी ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह (१६वीं शती), सकलकीर्ति के 'पंचपरमेष्ठिपूजन', 'षोडशकारणपूजन' प्रवृत्ति विकसित हुई है। एवं गणधरवलयपूजन' (१६वीं शती) श्रीभूषण का 'षोडशसागावतोद्यापन', यह हम पूर्व में कह चुके हैं कि जैन धर्म का तीर्थंकर व्यक्ति नागनन्दि का 'प्रतिष्ठाकल्प' आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं। के भौतिक कल्याण में साधक या बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिनपूजा के साथ यक्ष-यक्षियों के रूप में शासनदेवता तथा जैन पूजा-अनुष्ठानों पर तंत्र का प्रभाव देवी की कल्पना विकसित हुई और यह माना जाने लगा कि अपने जैन अनुष्ठानों का उद्देश्य तो लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न- उपास्य तीर्थंकर की अथवा अपनी उपासना से शासनदेवता (यक्ष-यक्षी) बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही प्रसन्न होकर उपासक का सभी प्रकार से कल्याण करते हैं। है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि से रखता है कि प्रभु की शासनरक्षक देवी-देवता के रूप में सरस्वती, अम्बिका, पद्मावती, पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के चक्रेश्वरी, काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, लिए है। आचार्य समन्तभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हे नाथ! चूंकि पार्श्वयक्ष, आदि यक्षों, नवग्रहों, अष्ट दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों आप वीतराग हैं, अत: आप अपनी पूजा या स्तुति से प्रसन्न होने वाले (भैरवों) के पूजा-विधानों को जैन-परम्परा के स्थान मिला। इन सबकी नहीं हैं और आप विवान्तवैर हैं इसलिए निन्दा करने पर भी आप पूजा के लिए जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित् परिवर्तन के साथ अप्रसन्न होने वाले नहीं है। आपकी स्तुति का मेरा उद्देश्य तो केवल हिन्दू तांत्रिक परम्परा से ग्रहण, कर लिया। भैरवपद्मावतीकल्प आदि अपने चित्तमल को दूर करना है ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैन पूजा और प्रतिष्ठा की विधि में न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ! विवान्तवैर। तान्त्रिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन परम्परा के तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।। मूलभूत मंतव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि तन्त्र के प्रभाव से जैन इसी प्रकार एक गुजराती जैन कवि कहता है परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा अजकुलगतकेशरि लहेरे निजपद सिंह निहाल। भैरव, भूमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल, आदि की उपासना प्रमुख और तिम प्रभुभक्ति भवि लहेरे जिन आतम संभार।। तीर्थंकरों की उपासना गौण होती गई। हमें अनेक ऐसे पुरातत्त्वीय साक्ष्य जैन परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुणलब्धये' अर्थात् मिलते हैं जिनके अनुसार जिन-मन्दिरों में इन देवियों की स्थापना होने वन्दन करने का उद्देश्य प्रभु के गुणों की उपलब्धि करना है। जिनदेव की लगी थी। जैन अनुष्ठानों का एक प्रमुख ग्रन्थ 'भैरवपद्मावतीकल्प' है, जो एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अतः वीतराग के गुणों की उपलब्धि मुख्यतया वैयक्तिक जीवन की विघ्न-बाधाओं के उपशमन और भौतिक का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि। इस प्रकार जैन अनुष्ठान मूलतः उपलब्धियों के लिए विविध अनुष्ठानों का प्रतिपादन करता है। इस ग्रन्थ आत्मविशुद्धि और स्वस्वरूप की उपलब्धि के लिए है। जैन अनुष्ठानों में में वर्णित अनुष्ठानों पर जैनेत्तर तन्त्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशतः जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। जो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्मा के लिए ईस्वी छठी शती से लेकर आज तक जैन परम्परा के अनेक पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं, आचार्य भी शासनदेवियों, क्षेत्रपालों और यक्षों की सिद्धि के लिए जिनपूजा के विविध प्रकारों में जिन पाठों का पठन किया जाता है या जो प्रयत्नशील देखे जाते हैं और अपने अनुयायियों को भी ऐसे अनुष्ठानों स्तोत्र आदि प्रस्तुत किये जाते हैं, उनका मुख्य उद्देश्य आत्मविशुद्धि ही के लिए प्रेरित करते रहे हैं। जैन धर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा है। साधक आत्मा, आत्म-विशुद्धि में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिए पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलत: तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव ही ही धर्म-साधना करता है। वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के है। जिनपूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं, जिन्हें शमन की साधना मानता है। ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता किन्तु जैसाकि हम पूर्व में बता चुके हैं मनुष्य की वासनात्मक है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों के समय उसका आह्वान, स्थापन, विसर्जन आदि किया जाता है उसी का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी। प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन जैन धर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है, जो भौतिक जीवन में के मन्त्र बोले जाते हैं- यथासुख-समृद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिए यह ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन अत्र अवतर अवतर संवौषट्-आह्वानम आवश्यक हो गया कि वे अपने उपासकों की जैन धर्म में श्रद्धा बनाये ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः- स्थापनम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211018
Book TitleJain Dharm me Puja Vidhan aur Dharmik Anushthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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