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________________ ३३८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ होता है उनकी उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वत: प्रयोग की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप का परित्याग एवं अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके को जानता है, किन्तु दूसरा वैज्ञानिकों के कथनों पर विश्वास करके माध्यम से प्राप्त ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का अर्थ है- वस्तु वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। यद्यपि यहाँ दोनों का ही को उसके अनन्त पहलुओं से जानना। दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने स्वानुभूति से पाया है तो दूसरे जैन धर्म में सम्यग्ज्ञान का अर्थ आत्म-अनात्म का विवेक भी ने उसे श्रद्धा के माध्यम से। श्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यग्दर्शन सकता, उसे ज्ञाता-ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता, का वास्तविक अर्थ है। ऐसा सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार, निराकुल क्योंकि वह स्वयं ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं चित्तवृत्ति से। बन सकता, अत: आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा __ जैन धर्म में सम्यग्दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये हैं- है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। १. सम अर्थात् समभाव, २. संवेग अर्थात् आत्मा के आनन्दमय स्वरूप सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, ३. निवेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? और इससे वह यह ४. अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति की पीड़ा को आत्मवत् समझना निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं, वे उसके और उसके प्रति करुणा का भाव रखना तथा ५. आस्तिक्य अर्थात् स्वस्वरूप नहीं है, वे अनात्म हैं। सम्यग्ज्ञान आत्म-ज्ञान है, किन्तु पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है। अनात्म करना। के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद करना, भेद-विज्ञान जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है और यही जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान का मूल अर्थ है। जैनों की पारिभाषिक है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है--इन शब्दावली में इसे भेद-विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि चार आर्य-सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैन साधना के अनुसार जो कोई भी सिद्ध हुए हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक के अनुसार षट् स्थानों (छह बातों) की स्वीकृति सम्यग्दर्शन है- या भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं. वे इसके (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का अभाव के कारण ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद-विज्ञान कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा का अत्यन्त गहन विवेचन किया है। मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मक्ति का उपाय (मार्ग) है। जैन तत्त्व-विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति, सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक्चरित्र है। इसके दोनों ही इन पर निर्भर है, ये षट्स्थानक जैन साधना के केन्द्र दो रूप माने गए हैं-१. व्यवहारचारित्र और २. निश्चयचारित्र। आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहारचारित्र कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चयचारित्र कही जाती है। जहाँ सम्यग्ज्ञान तक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मकचारित्र दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्त निर्भर करती ही उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का है। अत: जैन साधना का दूसरा चरण है सम्यग्ज्ञान। सम्यग्ज्ञान को प्रश्न है, चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। निश्चय दृष्टि (Real view मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन सा ज्ञान मुक्ति point) से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान है। वस्तुत: चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यग्ज्ञान वस्तुतत्त्व का चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। शद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकांगी ज्ञान मिथ्यात्व चेतना में जब राग-द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह है, क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक शान्त हो जाती है, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव आग्रहबुद्धि है तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असम्भव है। जैन दर्शन व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन से के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त है। व्यवहारचारित्र को सर्वव्रती और देशव्रतीचारित्र-ऐसे दो वर्गों में दृष्टि सम्यग्ज्ञान की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह विभाजित किया गया है। देशव्रतीचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ उपासकों अपने में निहित राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है। अतः से और सर्वव्रतीचारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है। जैन परम्परा में एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक हैं। जैन साधना गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारह व्रत और ग्यारह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211003
Book TitleJain Dharm ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size922 KB
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