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८. अल्पभाषी
अपिशुनी तथा सत्यशील
१. इन्द्रिय और मन पर अधिकार अलोलुप (इन्द्रिय विषयों में अनासक्त)
करने वाला १०. तेजस्वी
११. धर्मी
१२. नम्र एवं विनीत
१३. चपलता रहित तथा शांत १४. पापभीरु, शान्त
अप्रशस्त या अधर्म लेश्याओं में प्राणियों की मनःस्थिति एवं चारित्र (उत्तराध्ययन" के आधार पर जैन दृष्टिकोण)
४. दुराचारी ५. कपटी
६. मिथ्यादृष्टि
८. नृशंस
९. हिंसक
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
तेजस्वी
धैर्यवान
कोमल
१. अज्ञानी
कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान का अभाव नष्टात्मा एवं चिन्ताग्रस्त
२.
३. मन, वचन एवं कर्म से अगुप्त मानसिक एवं कायिक शौच से रहित (अपवित्र)
१०. रसलोलुप एवं विषयी ११. अविरत
१२. चोर
चपलतारहित (अचपल)
लोक और शास्त्रविरुद्ध आचरण में
लज्जा
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आसुरी सम्पदा से युक्त प्राणी की मनःस्थिति एवं चारित्र (गीता का दृष्टिकोण) २६
७. अविचारपूर्वक कर्म करने वाला अल्पबुद्धि
कूरकर्मी
हिंसक, जगत् का नाश करने वाला कामभोग परायण तथा क्रोधी तृष्णायुक्त
चोर
अशुद्ध आचार (दुराचारी। कपटी, मिथ्याभाषी
आत्मा और जगत् के विषय में मिथ्या दृष्टिकोण
महाभारत और लेश्या सिद्धान्त
गीता महाभारत का अंग है और महाभारत में सनत्कुमार एवं वृत्रासुर के संवाद में प्राणियों के छः प्रकार के वर्णों का निर्देश हुआ है। वे वर्ण हैं— कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल इन छः- वर्णों की सुखात्मक स्थिति का चित्रण करते हुए कहा गया है कि कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है, रक्त वर्ण का सुख सह्य होता है, हारिद्र वर्ण सुखकर होता है और शुक्ल वर्ण सर्वाधिक सुखकर होता है।
ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में भी षट् लेश्याओं की सुखदुःखात्मक स्थितियों की चर्चा उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त महाभारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदि इन चार वर्णों के चार रंगों (वर्णों) का भी उल्लेख मिलता है। इसमें शूद्र को कृष्ण, वैश्य को नील, क्षत्रिय को रक्त, और ब्राह्मण को शुक्ल वर्ण कहा गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैनाचार्य जटासिंह नन्दी ने वरांगचरित (७वीं शती) में इस
अवधारणा की स्पष्ट समीक्षा भी की थी। उन्होंने कहा था कि न तो सभी शूद्र काले होते हैं और न सभी ब्राह्मण शुक्ल वर्ण के होते हैं।
साथ ही महाभारत में वर्गों के आधार पर जीवों की उच्च एवं निम्न गतियों का भी उल्लेख हुआ है। सभी वर्णों की चर्चा करते हुए भी बताया गया है कि नारकीय जीवों का वर्ण कृष्ण होता है, जो नरक से निकलते हैं उनका वर्ण धूम्र होता है मानव जाति का वर्ण नीला होता है। देवों का वर्ण रक्त (लाल) होता है। अनुग्रहशील विशिष्ट देवों का वर्ण हारिद्र और साधकों का वर्ण शुक्ल होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्णों (रंगों ) के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण अनेक दृष्टियों से किया गया है।
योगसूत्र एवं लेश्या - सिद्धान्त
पतंजलि ने अपने योगसूत्र में चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं१. कृष्ण, २. कृष्ण शुक्ल, ३. शुक्ल और ४. अशुक्ल अकृष्ण इन्हें क्रमश: अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और और शुद्धतर कहा गया है।
उपरोक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में कृष्ण और शुक्ल इन दो वर्णों की कल्पना की इन्हेंमनोवृत्ति, आचरणगति आदि से जोड़ा गया। जैन दर्शन में इन्हें कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी कहा गया तथा कृष्णपक्षी को मिथ्यादृष्टि और शुक्लपक्षी को सम्यक्दृष्टि माना गया। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कृष्ण धर्म और शुक्ल धर्म का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पण्डित कृष्ण धर्म का परित्याग कर शुक्ल धर्म का अनुसरण करे। आगे चलकर अकृष्ण- अशुक्ल रूप निर्वाण कल्पना के साथ तीन वर्ग बनाये गये। फिर जन्म के आधार पर कृष्ण- अभिजाति और शुक्ल अभिजाति की कल्पना का कर्म की दृष्टि से उक्त तीन अवस्थाओं से संयोग करके बौद्ध धर्म में भी छः वर्ग बने, जिनकी चर्चा हम पूर्व मे कर चुके हैं। इस प्रकार कृष्ण और शुक्ल दोनों के संयोग से कृष्ण शुक्ल नामक तीसरे और दोनों का अतिक्रमण करने से चौथे वर्ग की कल्पना की गयी और इस प्रकार एक चतुर्विध वर्गीकरण भी हुआ। पतंजलि और बौद्ध दर्शन में यह चतुर्विध वर्गीकरण भी मिलता है। इस प्रकार कृष्ण और शुक्ल वर्ण के मध्यवर्ती अन्य वर्णों की कल्पना के साथ आजीवक आदि कुछ प्राचीन श्रमण धाराओं में षट् अभिजातियों की और जैनधारा में लेश्याओं की अवधारणा सामने आयी है।
लेश्या सिद्धान्त एवं पाश्चात्य नीतिवेत्ता रॉस के नैतिक व्यक्तित्व का वर्गीकरण
पाश्चत्य नीतिशास्त्र में डब्ल्यू ० रॉस भी एक ऐसा वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं जिसकी तुलना जैन लेश्या - सिद्धान्त से की जा सकती है। रॉस कहते हैं कि नैतिक शुभ एक ऐसा शुभ है जो हमारे कार्यों, इच्छाओं, संवेगों तथा चरित्र से सम्बन्धित है। नैतिक शुभता का मूल्य केवल इसी बात में नहीं है कि उसका प्रेरक क्या है, वरन् उसकी अनैतिकता के प्रति अवरोधक शक्ति से भी है। उनके अनुसार नैतिक शुभत्व के
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