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________________ जैन धर्म का त्रिविध साधना-मार्ग 413 को लेकर विवाद चला आ रहा है। वैदिक युग में जहाँ विहित आचरण है वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पङ्ग के समान है और ज्ञानचक्षुविहीन की प्रधानता रही है, वहीं औपनिषदिक युग में ज्ञान पर बल दिया आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या आचरण दोनों निरर्थक हैं और संसार रूपी दावानल से साधक को रही है कि ज्ञान और क्रिया के बीच साधना का यथार्थ तत्त्व क्या बचाने में असमर्थ हैं। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला है? जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधना-मार्ग में ज्ञान और क्रिया अन्धा तथा अकेला पङ्ग इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग देहदण्डनपरक तप-साधना में और वैदिक परम्परा यज्ञयागपरक से मुक्ति होती है।३० व्याख्याप्रज्ञप्ति में ज्ञान और क्रिया में से किसी क्रियाकाण्डों में ही साधना की इतिश्री मानकर साधना के मात्र एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित है।३१ महावीर ने साधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक करने का प्रयास किया था। महावीर और उनके बाद जैन विचारकों सम्बन्ध की एक चतुर्भङ्गी का कथन इसी सन्दर्भ में ने भी ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधना-पथ का उपदेश किया हैदिया। जैन विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र (1) कुछ व्यक्ति ज्ञान-सम्पन्न हैं, लेकिन चारित्र-सम्पन्न औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की समीक्षा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि कुछ विचारक मानते हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आर्यतत्त्व (यथार्थता) को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है, लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं। सूत्रकृताङ्गसूत्र में कहा है कि ये मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कर्मों के कारण दुःखी होगा।२५ अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता। मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है? असद् आचरण में अनुरक्त अपने आप को पण्डित मानने वाले लोग वस्तुत: मूर्ख ही हैं।२६ आवश्यक- नियुक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है। उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि “आचरणविहिन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार नहीं होते। मात्र शास्त्रीय ज्ञान से, बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप-संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती।"२७ मात्र जान लेने से कार्य-सिद्धि नहीं होती। तैरना जानते हुए भी कोई कायचेष्टा नहीं करे तो डूब जाता है, वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है।२८ जैसे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार-वाहक ही बना रहता है वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है, इससे उसे कोई लाभ नहीं होता।२९ ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध-पङ्ग न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पङ्ग उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक्-मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता (2) कुछ व्यक्ति चारित्र-सम्पन्न हैं, लेकिन ज्ञान-सम्पन्न नहीं हैं। (3) कुछ व्यक्ति न ज्ञान-सम्पन्न हैं, न चारित्र सम्पन्न हैं। (4) कुछ व्यक्ति ज्ञान-सम्पन्न भी हैं और चारित्र-सम्पन्न भी हैं। महावीर ने इनमें से सच्चा साधक उसे ही कहा है, जो ज्ञान और क्रिया, श्रुत और शील दोनों से सम्पन्न है। इसी को स्पष्ट करने के लिए निम्न रूपक भी दिया जाता है। (1) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु भी खोटी होती है, मुद्रांकन भी ठीक नहीं होता। (2) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु तो शुद्ध होती हैं, लेकिन मुद्रांकन ठीक नहीं होता। (3) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु अशुद्ध होती हैं, लेकिन मुद्रांकन ठीक होता है। (4) कुछ मुद्राएँ ऐसी होती हैं जिनमें धातु भी शुद्ध है और मुद्रांकन भी ठीक होता है। बाजार में वही मुद्रा ग्राह्य होती है जिसमें धातु भी शुद्ध होती है और मुद्रांकन भी ठीक होता है। इसी प्रकार सच्चा साधक वही होता है जो ज्ञान-सम्पत्र भी हो और चारित्र-सम्पन्न भी हो। इस प्रकार जैन विचारणा यह बताती है कि ज्ञान और क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान और चारित्र दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और एकान्त होने के कारण जैन दर्शन की अनेकान्तवादी विचारणा के अनुकूल नहीं हैं। तुलनात्मक दृष्टि से विचार जैन परम्परा में साधन-त्रय के समवेत में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है, जबकि वैदिक परम्परा में ज्ञाननिष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों ही अलग-अगल मोक्ष के साधन माने जाते रहे हैं और इन आधारों पर वैदिक परम्परा में स्वतन्त्र सम्प्रदायों का उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210999
Book TitleJain Dharm ka Trivid Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size764 KB
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