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________________ ४ / दर्शन और न्याय : २३ इस तरह उल्लिखित कथनका सार यह है कि सम्यग्दर्शनके सद्भावमें हो उत्पन्न होनेका नियम होनेसे मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो सतत प्रमाणरूप ही हुआ करते हैं । अवधिज्ञान यदि सम्यग्दर्शनके सद्भावमें उत्पन्न हुआ हो तो प्रमाणरूप होता है और यदि मिथ्यादर्शन के सद्भावमें उत्पन्न हुआ हो तो अप्रमाणरूप होता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के सद्भावमें उत्पन्न होनेके कारण क्रमश: प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप हुआ करते हैं तथा निर्दोष और सदोष इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण भी वे क्रमश: प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप हुआ करते हैं । वचन भी प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप होता है : जिस प्रकार उल्लिखित प्रकारसे ज्ञान प्रमाण और अप्रमाणरूप होता है उसी प्रकार वचन भी प्रमाण और अप्रमाणरूप होता है । वचनकी प्रमाणता और अप्रमाणताका आधार यह है कि वह (वचन) प्रमाणरूप और अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण' होता है । अर्थात् वक्ताके वचनको सुनकर श्रोताको व लेखकके वचनको पढ़कर पाठकको जो पदार्थज्ञान होता है वह घुतज्ञान कहलाता है। यह श्रुतज्ञान यदि प्रमाणरूप होता है तो इसके निमित्तभूत वचनको भी प्रमाणरूप माना जाता है और वह (श्रुतज्ञान) यदि अप्रमाणरूप होता है तो उसके निमित्तभूत वचनको भी अप्रमाणरूप माना जाता है । वचनकी प्रमाणता और अप्रमाणताका एक अन्य आधार उस (वचन) की उत्पत्तिमें निमित्तभूत पुरुषकी प्रमाणता और अप्रमाणता भी होती हैं। अर्थात् वचनकी उत्पत्ति वक्ताके बोलनेरूप या लेखकके लिखनेरूप व्यापारसे होती है इसलिये वक्ता या लेखक यदि प्रामाणिक व्यक्ति होता है तो उसके द्वारा क्रमशः बोला गया या लिखा गया वचन भी प्रमाणरूप माना जाता है और वक्ता या लेखक यदि अप्रामाणिक व्यक्ति होता है तो उसके द्वारा क्रमशः बोला गया या लिखा गया वचन भी अप्रमाणरूप माना जाता है । यही कारण है कि वचनकी प्रमाणताको सिद्ध करनेके लिए स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें वचनके साथ 'आप्तोपज्ञ १२ विशेषण लगाया है। आप्तका अर्थ प्रामाणिक व्यक्ति होता है—यह बात स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्डकमें पाये जानेवाले आप्तके लक्षणसे ही प्रकट होती है। यथा आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञ नागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ||५|| अर्थात् जिसके अन्दरसे सर्व प्रकारके दोष निकल गये हों, साथ ही जो सर्वज्ञ और आगमका स्वामी हो वही आप्त कहला सकता है । इन बातोंके अभाव में आप्तता सम्भव नहीं है । स्वामी समन्तभद्र द्वारा बतलाया गया आप्तका उपर्युक्त लक्षण आप्तसामान्यका न होकर आप्तविशेषका अर्थात् सर्वोत्कृष्ट आप्तका ही लक्षण है। इससे यह बात फलित होती है कि ऐसे पुरुष भी आप्त कहे जाने योग्य हैं जो अल्पज्ञ होकर भी कम से कम पूर्वोक्त प्रकारके राग, द्वेष और मोहको नष्ट करके सम्यग्दृष्टि बन गये हों। यही कारण है कि आचार्य अनन्तवीर्यने आप्तका लक्षण निम्न प्रकार किया है“यो यत्रावञ्चकः स तत्राप्तः ।" - प्रमेयरत्नमा० ३ ९९ । १. 'आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । परीक्षामुख ३ ९९ सूत्रमें प्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में आप्तवचनको व 'रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम् । परीक्षामुख ६ ५१ सूत्र में अप्रमाणरूप श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में अनाप्तवचनको कारण माना गया है । I' २. आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापट्टनम् ||९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210987
Book TitleJain Darshan me Nayavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & Naya
File Size2 MB
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