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३४ : सरस्वतो-धरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
भवेयुर्न पुनः सप्तैव वाच्येयत्तात्वाद्वाचकेयत्तायाः । ततो विरुद्वैव सप्तभङ्गीति चेत्, न विधीयमाननिषिध्यमानधर्मविकल्पापेक्षया तदविरोधात् 'प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गी वस्तुनि' इति वचनात् । ततो अनन्ताः सप्तभङ्गयो भवेयुरित्यपि नानिष्टम् ।' --त० श्लोकवा० १-६-५२
अर्थात् शंका पक्ष कहता है कि एक वस्तुमें कथन करने योग्य जब अनन्तधर्म स्वीकार किए गये हैं तो इनका कथन करनेके लिए स्याद्वादियोंके सामने अनन्तसंख्यक वचनमार्गोंकी प्रसक्ति होती है, केवल सात वचनमार्गों की नहीं, क्योंकि जितने वाच्य होते हैं उतने ही वाचक हो सकते हैं, हीनाधिक नहीं, अतः सप्तभंगीकी मान्यता असंगत है ।
उत्तर पक्ष यह है कि सप्तभंगीकी मान्यता विधीयमान और निषिध्यमान युगलधर्मो के विकल्पों के आधारपर जैनदर्शनमें स्वीकृत की गयी है, अनन्तधर्मो के विकल्पोंके आधारपर नहीं, कारण कि 'प्रत्येक पर्याय में सप्तभंगी सिद्ध होती है' ऐसा आगमका निर्देश है। इस तरह प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान अनन्त धर्मोमेंसे प्रत्येक धर्म में विधीयमान और निषिध्यमान धर्मयुगलकी स्वीकृतिके आधारपर सप्तभंगीको स्थान प्राप्त हो जानेसे अनन्तभंगीके बजाय अनन्त सप्तभंगीकी स्वीकृति हम स्याद्वादियोंके लिये अनिष्ट नहीं है ।
वस्तुका अनन्तधर्मात्मक होना एक बात है और उसका अनेकान्तात्मक होना दूसरी बात है । इन दोनोंमेंसे जैनेतर दर्शनकारोंके लिये वस्तुको अनन्तधर्मात्मक माननेमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि पृथ्वी में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चतुष्टयको वे भी एक साथ स्वीकार करते हैं। परन्तु वे ( जैनेतर दर्शन ) वस्तुको अनेकान्तात्मक स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं । इसके विपरीत जैनदर्शनका रोंने वस्तुको अनन्तधर्मात्मक और अनेकान्तात्मक उभयरूप स्वीकार किया है। उपर्युक्त प्रकारके अनेकान्तकी स्वीकृतिके आधारपर ही जैनदर्शनको अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है। और उसकी अस्वीकृतिके आधारपर ही जैनेतर दर्शनोंको एकान्तवादी दर्शन कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि परस्पर - अविरोधी अनन्तधर्मोकी सत्ता एक साथ ही वस्तु जैन और जैनेतर दोनों दर्शनों में स्वीकार की गयी है । परन्तु परस्पर विरोधी दो धर्मोकी सत्ता एक साथ एक ही वस्तुमें जैनदर्शन तो स्वीकार करता है किन्तु जैनेतर दर्शन नहीं स्वीकार करते हैं । जैनेतर दर्शनोंमें से कोई दर्शन परस्पर विरोधी दो धर्मोंमें यदि एक धर्मको स्वीकार करता है तो द्वितीय धर्मका वह निषेधक हो जाता और कोई जैनेतर दर्शन यदि द्वितीय धर्मको स्वीकार करता तो प्रथम धर्मका वह निषेधक हो जाता है । जैसे सांख्य दर्शन बतलाता है कि 'वस्तु नित्य हैं' और बौद्धदर्शन बतलाता है कि 'वस्तु अनित्य है ।' परन्तु जैनदर्शन प्रतिपादन करता है कि 'वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है ।'
अनेकान्तके अंगभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगल के प्रत्येक वस्तुमें अनन्त विकल्प समाये हुए हैं । उनमें से अनेकान्तका स्वरूप प्रदर्शित करनेके लिए आचार्य श्री अमृतचन्द्रने समयसारके स्याद्वादाधिकार प्रकरण में कतिपय परस्पर विरोधी धर्मयुगलोंकी गणना भी की है । यथा-
'यदेव तत् तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्ध शक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।'
अर्थात् जो ही वह है वही वह नहीं है, जो ही एक है वही एक नहीं है अर्थात् अनेक है, जो ही सत् है वही सत् नहीं है अर्थात् असत् है और जो ही नित्य है वही नित्य नहीं है अर्थात् अनित्य है - इस प्रकार एक वस्तुके वस्तुत्व ( स्वरूप ) की निष्पादक परस्परविरुद्धशक्तिद्वयका प्रकाशन करना ही अनेकान्त है ।
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इसका आशय यह है कि विश्वकी अनन्तानन्त वस्तुओंमेंसे प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी पृथक् पृथक द्रव्यरूपता ( प्रदेशवत्ता ), गुणरूपता ( स्वभाववत्ता ) और पर्यायरूपता ( परिणमनवत्ता ) को लिये
हुए
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