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३२ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-न्य
देशकालार्थ विषयिताके सद्भावका प्रयोजन यह है कि जिस प्रमाणमें नयव्यवस्थाको सिद्धिकी जाय उसके द्वारा पदार्थ के सम्पूर्ण अंशोंका विषय होना आवश्यक है । इसका निष्कर्ष यह है कि मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानरूप प्रमाणोंमें क्षायोपशमिकज्ञान होनेके कारण चूँकि निःशेषदेशकालार्थं विषयिताका अभाव रहता है। अतः इनमें नयव्यवस्थाकी सिद्धिका विरोध किया गया है । इसी प्रकार प्रमाण में नयव्यवस्थाकी सिद्धिहेतु परोक्षाकारताका प्रयोजन यह है कि जिस प्रमाणमें नयव्यवस्थाकी सिद्धि की जाय उस प्रमाणके द्वारा पदार्थ के सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान क्रमशः होना आवश्यक है कारण कि पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान प्रमाण द्वारा यदि युगपत् होता है तो उसमें अंशोंका विभाजन होना असम्भव है । इसका निष्कर्ष यह है कि केवलज्ञानमें निःशेषदेशकालार्थ विषयिताका सद्भाव रहते हुए भी क्षायिकज्ञान होनेके कारण प्रत्यक्षाकारता आ जानेसे पदार्थ के सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान चूँकि युगपत् अखण्डभावसे ही हुआ करता है । अतः उसमें (केवलज्ञानरूप प्रमाणमें) भी नयव्यवस्थाका अभाव सिद्ध हो जाता है और चूँकि श्रुतज्ञान एक ऐसा प्रमाण है कि जिसमें निःशेषदेशकालार्थ - विषयिता और परोक्षाकारता दोनों ही बातें पायी जाती हैं अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा एक तो पदार्थ के सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान होता है और दूसरे क्षायोपशमिक व वचनावलम्बी ज्ञान होनेके कारण उसमें ( श्रुतज्ञानमें) परीक्षाकारताके आजानेसे पदार्थके उन सम्पूर्ण अंशोंका ज्ञान क्रमशः सखण्डभावसे ही हुआ करता है, अतः उसमें नयव्यवस्थाका सद्भाव सिद्ध हो जाता है । स्वामी समन्तभद्रने श्रुतज्ञानको क्रमशः सर्वतत्त्वप्रकाशक स्वीकार किया है । यथा -
स्याद्वादकेवलज्ञाने
सर्वतत्त्वप्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ -आप्तमीमांसा, का०, १०५ ।
स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही पदार्थको सर्वात्मना ग्रहण करते हैं लेकिन केवलज्ञान जहाँ पदार्थको साक्षात् अर्थात् प्रत्यक्षरूपमें युगपत् अखण्डभावसे ग्रहण करता है वहाँ श्रुतज्ञान उसे असाक्षात् अर्थात् परोक्षरूपमें क्रमशः सखण्डभावसे ही ग्रहण करता है ।
तात्पर्य यह है कि पदार्थका जहाँ सम्पूर्ण ताके साथ ग्रहण होता है वहाँ पदार्थ के संपूर्ण अंशोंका ग्रहण होता हुआ भी यदि वह ग्रहण प्रत्यक्षरूपमें होता है तो उसमें पदार्थ के वे संपूर्ण अंश युगपत् अखण्डभाव से ही गृहीत होते हैं और यदि वह ग्रहण परोक्षरूपमें होता है तो उसमें पदार्थके वे संपूर्ण अंश क्रमसे एक-एक अंश रूपमें सखण्डभावसे ही गृहीत होते हैं ।
केवलज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनोंके मध्य इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानमें पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ग्रहण प्रत्यक्षरूपमें होनेके कारण युगपत् अखण्डभावसे ही हुआ करता है और श्रुतज्ञानमें पदार्थके सम्पूर्ण अंशोंका ग्रहण परोक्षरूपमें होंनेके कारण क्रमशः संखण्डभावसे ही हुआ करता है ।
स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि-
'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥ -- आप्तमीमांसा का० १०१ । अर्थात् हे भगवन् आपके मत में युगपत् सर्वभासनरूप तत्त्वज्ञान अर्थात् केवलज्ञान और स्याद्वादनयसे संस्कृत क्रमसे उत्पन्न होनेवाला सर्वभासनरूप तत्त्वज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान दोनों ही प्रमाणरूप माने गये हैं ।
इससे केवलज्ञान और श्रुतज्ञानमें उल्लिखित प्रकारका अन्तर स्पष्टरूपसे समझ में आ जा जाता है । इस तरह आगमप्रमाणोंके आधारपर यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि नयव्यवस्था श्रुतज्ञानमें ही होती है ।
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