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खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म - चिन्तन
सांख्य दर्शन की भाषा में इन पाँचों - अविद्या को तमस, अस्मिता को मोह, राग को महामोह, द्वेष को तमिस्र और अभिनिवेश को अन्धतामिस्र के नामों में अभिहित किया गया है।
आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है - " मूढ़ आत्मा जिसमें विश्वास करता है, उससे अधिक कोई भयानक वस्तु नहीं । मूढ़ आत्मा जिससे डरता है, उससे बढ़कर शरण देने वाली वस्तु इस संसार में नहीं है ।"
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भयंकर वस्तु में विश्वास करना और अभयदान करने वाली वस्तुओं से दूर भागना - यह उस समय होता है जब आत्मा मूढ़ हो, दृष्टिकोण मिथ्या हो, अविद्या और अज्ञान और मोह से व्यक्ति ग्रसित हो ।
मिथ्यात्व और अविद्या ---
मिथ्यात्व - मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यादर्शन; जो कि सम्यग्दर्शन से उलटा होता है । जो बात जैसी हो, उसे वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है ।
मिथ्यात्व के दस रूप - मिथ्यात्व, विपरीत तत्व श्रद्धा के दस रूप बनते हैं
१. अधर्म में धर्म संज्ञा । २. धर्म में अधर्म संज्ञा । ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा । ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा । ५. अजीव में जीव संज्ञा । ६. जीव में अजीव संज्ञा । ७. असाधु में साधु संज्ञा । ८. साधु में असाधु संज्ञा । ६. अमुक्त में मुक्त संज्ञा । १०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा । अविद्या - जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उसका भान होना अविद्या का सामान्य लक्षण है । अविद्या के पाद- - योग दर्शन के अनुसार पशु के तुल्य अविद्या के भी चार पाद हैं
१. अनित्य में नित्य का ज्ञान । २. अपवित्र में पवित्रता का ज्ञान । ३. दुःख में सुख का ज्ञान । ४ अनात्म (जड़) में आत्म का ज्ञान ।
अविरति - विरति का अभाव, व्रत या त्याग का अभाव, दोषों से विरति न होना । पौद्गलिक सुखों के लिये व्यक्त या अव्यक्त पिपासा ।
मनोविज्ञान ने मन के तीन विभाग किये हैं
१. अदस् मन (id), २. अहं मन ( Ego ), ३. अधिशास्ता मन ( Super Ego ) ।
अदस् मन—– इसमें आकांक्षाएँ पैदा होती हैं। जितनी प्रवृत्त्यात्मक आशा अकांक्षाएँ और इच्छाएँ हैं वे सभी इसी मन में पैदा होती हैं ।
अहं मन—समाज व्यवस्था से जो नियन्त्रण प्राप्त होता है, उससे आकांक्षाएँ यहाँ नियन्त्रित हो जाती हैं और वे कुछ परिमार्जित हो जाती हैं । उन पर अंकुश जैसा लग जाता है । अहं मन इच्छाओं को क्रियान्वित नहीं करता है ।
अधिशास्ता मन - यह अहं पर भी अंकुश रखता है, और उसे नियन्त्रित करता है ।
अविरति अर्थात् छिपी हुई चाह, सुख-सुविधा को पाने की चाह और कष्ट को मिटाने की चाह । यह जो विभिन्न प्रकार की आन्तरिक चाह है, आकांक्षा है - इसे कर्मशास्त्र की भाषा में अविरति आस्रव कहा है । इसे मनोविज्ञान की भाषा में अदस् मन कहा गया है ।
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