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४४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
ranीका' आदि ग्रन्थोंका कुशलतापूर्वक सम्पादन किया तथा उनपर चिन्तन पूर्ण प्रस्तावनाएँ लिखकर उन्हें प्रकाशित भी कराया ।
सन् १९११ में जन्म लेने वाले महेन्द्रकुमार जीने अपने तीव्र क्षयोपशम और पुरुषार्थके बलपर अल्पवयमें ही लौकिक एवं पारमार्थिक शिक्षा प्राप्त करके सन् १९३२ से ही काशी में अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर दिया था । अध्यापनके साथ ही आपका अध्ययन भी जारी रहा और उन्होंने एम. ए. शास्त्री, न्यायाचार्य आदि उपाधियाँ अर्जित कर ली । पं० महेन्द्रकुमार जीका चिन्तन और सम्पादन आदिका कार्य कितना उच्चकोटिका था इसका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि 'सिद्धिविनिश्चय' टीका के कार्यका सही मूल्यांकन करके हिन्दू विश्वविद्यालय काशीने आपको पी. एच. डी. की उपाधि से सम्मानित किया ।
ग्रन्थोंकी प्रस्तावना में डॉ० महेन्द्रकुमार जीने जहाँ एक ओर जैनदर्शनकी विशेषताओंको उजागर किया वहीं विभिन्न दार्शनिकों द्वारा किए जा रहे जैनदर्शनके खण्डनका भी तर्कपूर्ण उत्तर दिया । उन्होंने अपनी लेखनीको किसी लोभ लालच या भयसे प्रभावित नहीं होने दिया। संस्कृत महाविद्यालय काशी में बौद्धदर्शनके प्राध्यापक होते हुए भी बौद्धदर्शनको तर्कसम्मत आलोचना एवं महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जैसे मनीषी एवं मान्य विद्वान् के विचारोंकी आलोचना करना इसका प्रमाण है ।
उनकी आलोचना ऐसे तथ्योंपर आधारित थी कि राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् ने उसे स्वीकार किया और उनकी विद्वत्तासे प्रभावित होकर उन्हें स्याद्वादपर स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ लिखनेके लिये प्रेरित किया । फलस्वरूप डॉ० महेन्द्रकुमार जीके चिन्तन और स्वाध्यायका सार ६०० पृष्ठों वाले मौलिक ग्रन्थ "जैनदर्शन” के रूपमें सामने आया । उन्होंने ग्रन्थ के 'दो शब्द' में स्वयं स्वीकार किया है कि राहुल सांकृत्यायन के उलाहनेने ही इस ग्रन्थको लिखनेका संकल्प कराया ।
'जैनदर्शन' ग्रन्थ को अपने प्रतिपाद्य विषयपर प्रथम ग्रंथका गौरव प्राप्त हुआ। अक्टूबर १९५५ में श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसीसे इसका प्रकाशन हुआ । प्रकाशकीय वक्तव्यमें संस्थाके कर्णधार विद्वान् पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री एवं पं० बंशोधर जी व्याकरणाचार्यने लिखा है कि-
'जैन समाज में दर्शनशास्त्रके जो इने-गिने विद्वान् हैं उनमें न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार प्रथम हैं । इन्होंने जैनदर्शन के साथ-साथ सब भारतीय दर्शनोंका सांगोपांग अध्ययन किया है तथा बड़े परिश्रम तथा अध्ययनपूर्वक इस ग्रन्थका निर्माण किया है । हिन्दीमें एक ऐसी मौलिक कृतिकी आवश्यकता थी जिसमें जैनदर्शनके सभी दार्शनिक मंतव्यों का ऊहापोह के साथ विचार किया गया हो। इस सर्वांगपूर्ण कृति द्वारा उस आवश्यकताकी पूर्ति हो जाती है। अतएव हम इस प्रयत्नके लिए पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यका जितना आभार मानें, थोड़ा है ।'
'जैनदर्शन' में केवल जैनदर्शनको हो व्याख्या नहीं है, अन्य भारतीय दर्शनोंकी मान्यताओंको उदाहरण सहित प्रस्तुत करके लेखकने उनके अधूरेपनको भी उजागर किया है और जैनदर्शनसे उनकी तुलना करनेके लिए आधार प्रस्तुत किए हैं। यद्यपि प्रकाशनके पूर्व कुछ विद्वानोंको भय था कि इस कृतिके प्रकाशन से साम्प्रदायिक विद्वेष फैल सकता है परन्तु निष्पक्ष दार्शनिकों और विचारक विद्वानोंने लेखककी इस कृति - की उपयोगिता स्वीकार करते हुए सराहना की, केवल मौखिक सराहना ही नहीं, अनेक विद्वानोंने प्रशंसात्मक पत्र लिखे तथा एक जैनेतर विद्वान् संस्कृत कॉलेज बनारसके पूर्व प्राचार्य पं० मंगलदेव शास्त्री एम० ए०, डी० फिल० ने उक्त ग्रन्थका प्राक्कथन लिखकर ग्रन्थकी प्रशंसा की एवं जैनदर्शनके सिद्धान्तों के महत्त्वको स्वीकार किया । प्राक्कथनके अन्तमें आपने लिखा
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