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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रतिपाद्यों की अपेक्षा अनुमान-प्रयोग
अनुमान प्रयोग के सम्बन्ध में जहाँ अन्य भारतीय दर्शनों में व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की विवक्षा किये बिना अवयवों का सामान्य कथन मिलता है वहाँ जैन विचारकों ने उक्त प्रतिपाद्यों की अपेक्षा उनका विशेष प्रतिपादन भी किया है । व्युत्पन्नों के लिए उन्होंने पक्ष और हेतु ये दो अवयव आवश्यक बतलाये हैं। उन्हें दृष्टान्त आवश्यक नहीं है। 'सर्व क्षणिक सत्त्वात्' जैसे स्थलों में बौद्धों ने, 'सर्वमभिधेय प्रमेयत्वात्' जैसे केवलान्वयिहेतुक अनुमानों में नैयायिकों ने भी दृष्टान्त को स्वीकार नहीं किया। अव्युत्पन्नों के लिए उक्त दोनों अवयवों के साथ दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवों की भी जैन चिन्तकों ने यथायोग्य आवश्यकता प्रतिपादित की है। इसे और स्पष्ट यों समझिए
गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद और सिद्धसेन के प्रतिपादनों से अवगत होता है कि आरम्भ में प्रतिपाद्यसामान्य की अपेक्षा से पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवों से अभिप्रेतार्थ (साध्य) की सिद्धि की जाती थी। पर उत्तरकाल में अकलंक का संकेत पाकर कुमारनन्दि और विद्यानन्द ने प्रतिपाद्यों को व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दो वर्गों में विभक्त करके उनकी अपेक्षा से पृथक-पृथक अवयवों का कथन किया। उनके बाद माणिक्यनन्दि, देवसूरि आदि परवर्ती जैन-ग्रन्थकारों ने उनका समर्थन किया और स्पष्टतया व्युत्पन्नों के लिए पक्ष और हेतु ये दो तथा अव्युत्पन्नों के बोधार्थ उक्त दो के अतिरिक्त दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये तीन सब मिलाकर पाँच अवयव निरूपित किये । भद्रबाहु ने प्रतिज्ञाशुद्धि आदि दश अवयवों का भी उपदेश दिया, जिसका अनुसरण देवसूरि, हेमचन्द्र और यशोविजय ने किया। व्याप्ति का ग्राहक एकमात्र तर्क
___ अन्य भारतीय दर्शनों में भूयोदर्शन, सहचारदर्शन और व्यभिचाराग्रह को व्याप्तिग्राहक माना गया है। न्यायदर्शन में वाचस्पति और सांख्यदर्शन में विज्ञानभिक्षु इन दो ताकिकों ने व्याप्तिग्रह की उपर्युक्त सामग्री में तर्क को भी सम्मिलित कर लिया। उनके बाद उदयन, गंगेश, वर्तमान प्रभृति तार्किकों ने भी उसे व्याप्तिग्राहक मान लिया। पर स्मरण रहे, जैन परम्परा में आरम्भ से तर्क को, जिसे चिन्ता, ऊहा आदि शब्दों से व्यवहृत किया गया है, अनुमान की एकमात्र सामग्री के रूप में प्रतिपादित किया है । अकलंक ऐसे जैन तार्किक हैं, जिन्होंने वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु से पूर्व सर्वप्रथम तर्क को ध्याप्तिग्राहक समर्थित एवं सम्मुष्ट किया तथा सबलता से उसका प्रामाण्य स्थापित किया। उनके पश्चात् सभी ने उसे व्याप्तिग्राहक स्वीकार कर लिया । तथोपपत्ति और अन्यथानुपत्ति
यद्यपि बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति और अन्तर्व्याप्ति के भेद से व्याप्ति के तीन भेदों, समव्याप्ति और विषमव्याप्ति के भेद से उसके दो प्रकारों तथा अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति इन भेदों का वर्णन तकग्रन्थों में उपलब्ध होता है, किन्तु तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति इन दो व्याप्ति प्रकारों (व्याप्ति प्रयोगों) का कथन केवल जैन तर्कग्रन्थों में पाया जाता है। इन पर ध्यान देने पर जो विशेषता ज्ञात होती है वह यह है कि अनुमान एक ज्ञान है, उसका उपादान कारण ज्ञान ही होना चाहिए । तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति ये दोनों ज्ञानात्मक हैं जबकि उपर्युक्त व्याप्तियां ज्ञयात्मक हैं । दूसरी बात यह है कि उक्त व्याप्तियों में मात्र अन्तर्व्याप्ति ही एक ऐसी व्याप्ति है, जो हेतु की गमकता में प्रयोजक है, अन्य व्याप्तियाँ अन्तर्व्याप्ति के बिना अव्याप्त और अतिव्याप्त हैं। अतएव वे साधक नहीं हैं तथा यह अन्तर्व्याप्ति ही तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति है अथवा उनका विषय है। इन दोनों में से किसी एक का ही प्रयोग पर्याप्त है । इनका विशेष विवेचन अन्यत्र दृष्टव्य है। साध्यामास
अकलंक ने अनुमानाभासों के विवेचन में पक्षाभास या प्रतिज्ञाभास के स्थान में साध्याभास शब्द का प्रयोग किया है । अकलंक के इस परिवर्तन के कारण पर सूक्ष्म ध्यान देने पर अवगत होता है कि चूंकि साधन का विषय (गम्य) साध्य होता है और साधन का अविनाभाव (व्याप्ति सम्बन्ध) साध्य के ही साथ होता है, पक्ष या प्रतिज्ञा के साथ नहीं, अतः साधनाभास (हेत्वाभास) का विषय साध्याभास होने से उसे ही साधनाभासों की तरह स्वीकार कर विवेचित करना युक्त है। विद्यानन्द ने अकलंक की इस सूक्ष्म दृष्टि को परखा और उनका सयुक्तिक समर्थन किया। यथार्थ में अनुमान के मुख्य प्रयोजक तत्त्व साधन और साध्य होने से तथा साधन का सीधा सम्बन्ध साध्य के साथ ही होने से साधनाभास की भाँति साध्याभास ही विवेचनीय है। अकलंक ने शक्य, अभिप्रेत और असिद्ध को साध्य तथा
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