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जैन सिद्धान्तों के सन्दर्भ में वर्तमान आहार-विहार २९१
धार्मिक दृष्टि से जो द्रव्य असेथ्य एवं अमक्ष्य बतलाए गए हैं, आयुर्वेद में उन्हों द्रव्यों का सेवन स्वास्थ्य को दृष्टि से उपयोगी बतलाया गया है। वे द्रव्य स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से तो उपयोगी होते ही हैं, उनके सेवन से शरीर में रोग-प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न होती है जिससे अनेक व्याधियाँ उत्पन्न ही नहीं हो पाती। कौन से कच्चे वानस्पतिक शाक द्रव्य भक्षण योग्य नहीं है, उनका उल्लेख निम्न श्लोक में मिलता है :
अल्पफलम्बहुविधातान्मूलकमाणि शृंगबेराणि ।
नवनीतनिम्बुकुसुमं कतकामत्येवमवहेयम् ॥ अर्थात् अल्पफल और बहुविधात के कारण ( अप्रासुक ) मूलक-मूली-गाजर आदि, आर्द्र शृंगबेर ( अदरक ) आदि, नवनीत-मक्खन, नीम के फूल, केतकी के फूल आदि द्रव्य तथा इसी प्रकार के अन्य द्रव्य त्याज्य हैं।
यहाँ "मूलक" पद मूल मात्र का द्योतक है जिसमें गाजर, मूल, शलजम, आलू, प्याज, शकरकन्द, जमीकन्द आदि खाए जाने वाले कन्दों तथा अन्य वनस्पतियों की जड़ों का समावेश होता है। शृंगबेरादिपद में अदरक के अतिरिक्त हरिद्रा (हल्दी ) आदि ऐसे कन्द सम्मिलित हैं जो अपने अंग पर किचित उभार लिए हुए होते हैं और उपलक्षण से उनमें ऐसे द्रव्यों का भी ग्रहण हो जाता है जो शृंग को भाँति उमार युक्त तो न हो, किन्तु अनन्त कायअनन्त जीवों के आश्रय भूत हों। बीच में "आणि " पद अपना विशेष महत्व रखता है जो अपने अर्थ से मूलक और शृंगबेर दोनों पदों को अनुप्राणित करता है, जिसका सामान्य अभिप्राय यह है कि ऐसे मूल कन्द आदि द्रव्य जो सामान्यतः गोले, हरे और अशुष्क हों। किन्तु विशिष्टार्थ को दृष्टि से सजीव या जीव सहित द्रव्य ग्राह्य हैं जो सचित्त एवं अप्रासुक कहलाते हैं। ऐसे द्रव्य जब तक अपक्व ( अनग्निपक्व ) होते हैं, तब तक वे सचित्त एवं अप्रासुक होते हैं, अतः वे खाने योग्य नहीं होते हैं। जिन द्रव्यों को अग्नि पर अच्छी तरह से पका लिया जाता है, वे जीव रहित होने से अचित्त हो जाते हैं, अतः प्रामुक हो जाते हैं। इसीलिए प्रामुक के मक्षण में कोई दोष या पाप .. महीं लगता है।
जैनधर्म में कन्द मूल आदि सचित्त वानस्पतिक शाक द्रव्यों के सेवन का सर्वथा निषेध हो, ऐसी भी बात नहीं है। श्री समन्तभद्र स्वामी ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में कच्चे द्रव्यों के सेवन में पाप दोष बतलाया है क्योंकि वे सचित्त ( जीव सहित ) होते हैं, किन्तु यदि उन्हें उबाल कर जीव रहित याने अचित बना लिया जाता है, तो उनके सेवन में कोई दोष नहीं है । रत्नकरन्ड श्रावकाचार का निम्न श्लोक यही भाव व्यक्त करता है :
मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि । नामानि सोऽत्ति तोऽयं सचित विरतो दयामूर्तिः ॥
यहां “आमानि" पद अपक्व एवं अप्रासुक अर्थ का द्योतक है । “न अत्ति" पद भक्षण के निषेध का वाचक है। यदि उन द्रव्यों को अग्नि में पका कर प्रासुक कर लिया जाता है, तो उनके सेवन में कोई दोष नहीं है, क्योंकि ग्रंथाकार ने "प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः" कह कर गृहस्थों की एक बड़ी समस्था का समाधान कर दिया है।
वर्तमान समय में अदरक, आलू, प्याज, गोभी, अरबी, गाजर, मूली आदि अनेक ऐसे वानस्पतिक द्रव्य हैं जो हमारे दैनिक भोजन में शाक के अनिवार्य अंग हैं। उनके बिना वर्तमान में शाक की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इनमें प्याज और आलू का प्रयोग इतना अधिक सामान्य है कि इनके उपयोग के बिना स्वादिष्ट साग को कल्पना ही नहीं की जा सकती। ये सभी ऋतुओं में सभी समय सर्व सुलम हैं । आयुर्वेद की दृष्टि से इनके औषधीय गुण धर्म को देखें:
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