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क्षीरोदधि से भिन्न नहीं है। इस कथन से यही ज्ञात होता है कि यद्यपि रचनाएँ महावीर स्वामी कीन होकर उनके परवर्ती जैनाचार्यों की कही जा सकती हैं किन्तु ये आचार्य विद्वत्ता में उस ऊँचाई पर ही दिखाई पड़ते हैं जिस ऊँचाई पर महावीर स्वामी के शिष्य रहे होंगे । अतः शुद्ध रूप से महावीर स्वामी का वचन न होने पर भी जैन धर्म में इन्हें उतना ही आदर प्राप्त है जितना श्रुतांगों को।
श्वेताम्बर परम्परा ही जिन के वचनों को सुरक्षित मानती है अत. इस साहित्य के संग्रह के संबंध में उनमें यह परम्परा स्वीकृत है कि महावीर निर्वाण से १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में स्थूल भद्र आचार्य ने जैन श्रमण संघ का सम्मेलन कराया और वहाँ ११ अंगों का संकलन किया गया । बारहवें अंग दृष्टिवाद का उपस्थित मुनियों में से किसी को भी ज्ञान नहीं रहा था । अतएव उनका संकलन नहीं किया जा सका। उसके पश्चात् शताब्दियों में यह श्रुत संकलन पुन: छिन्न-भिन्न हो गया तब वीर निर्वाण के लगभग आठ सौ चालीस वर्ष पश्चात् आर्य स्कन्दिल ने मथुरा में एक संघ सम्मेलन कराया जिसमें पुनः आगम साहित्यों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया गया। इसी समय लगभग बल्लभी में नागार्जुन सूरि ने भी एक मुनि सम्मेलन द्वारा आगम रक्षा का प्रयत्न किया किन्तु इन तीन पाटलिपुत्री, माथुरी और प्रथम बल्लभी वचनों के पाठ उपलब्ध नहीं केवल साहित्य में यत्र तत्र उनके उल्लेख मात्र पाये जाते हैं अन्त में महावीर निर्वाण के लगभग ९८० वर्ष पश्चात बल्लभीपुर में देवर्षिगणि क्षमा श्रमण द्वारा जो मुनिसम्मेलन किया गया, उसके कोई ४५.४६ ग्रन्थों का संकलन हुवा और ये ग्रन्थ आज तक सुप्रचलित है।1
इस तथ्य को ध्यान में रखकर यही मानना वैज्ञानिक है कि जैन साहित्य आज हमें जिस रूप में उपलब्ध है वह वही है जिसमें महावीर स्वामी अथवा उनसे पहले से आने वाली भाव-विचार परम्परा का अल्पांश ही सुरक्षित रह सका है उसका बहतांश ईसा की चौथी शताब्दी के आसपास तक जो परिवर्तन और परिवर्धन हो सका। था, उससे निर्मित है। इस साहित्य को हम श्वेताम्बर कह सकते हैं क्योंकि इसी सम्प्रदाय के आचार्य इसे प्रामाणिक मानते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य इसे उसी रूप में प्रामाणिक नहीं मानते जिस रूप में श्वेताम्बर । किन्तु उनका आधार भी यह ग्रन्थ है जिसके कारण उनके द्वारा भी उसी प्रकार का गौरव प्राप्त है जिस प्रकार श्वेताम्बरों द्वारा ।
यह पूरा साहित्य श्रमणों के आचार-व्यवहार से संबंध रखता है तथा उनमें से कुछ तर्कशास्त्र दर्शन एवं विभिन्न प्रकार की विधाओं पर प्रकाश डालते हैं। इन पुस्तकों में श्रमणों के चरित्र पर भी विशेष बल दिया गया है। चरित्र का प्रस्तुतिकरण कथात्मक शैली में ऐसी मूर्ति विधायिनी शब्दावली में हवा है कि उसमें साहित्य रस अनायास भर गया है । यही कारण है कि जो पाठक इनका अध्ययन धर्म आदि की दृष्टि से करते हैं वे साहित्यिक रस को फोकट के माल की तरह सहज ही प्राप्त करते चलते हैं । परवर्ती साहित्य में प्रबन्ध काव्यों, खण्डकाव्यों, कथा साहित्य, मुक्तक एवं गीतों को स्थान मिला, उसके मूल को भी हम इन्हीं रचनाओं में पाते हैं। १. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान
-डा० हीरालाल जैन, पृष्ठ ५५
इस साहित्य में त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों की धारणा पर्याप्त पुष्ट रूप में दिखाई पड़ती है, ये पुरुष हैं-२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ वासुदेव तथा ९ प्रतिवासुदेव । इनमें साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त कर सके हैं, वे हैं-ऋषभ, नेमि, पार्श्वनाथ महावीर, पद्म, राम, कृष्ण तथा रावण । इन श्रुतांगों के अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० प्रकीर्णक तथा २ पूणिका सूत्रों, को भी आगम ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करता है। इस साहित्य पर भाष्य चूणियों और टीकाएं की गई हैं जिसमें इस साहित्य का पर्याप्त विस्तार हो गया है।
दिगम्बर सम्प्रदाय इन रचनाओं को प्रामाणिक नहीं मानता और यह स्वीकार करके चलता है कि महावीर स्वामी के गुणधरों और केवलियों को मिला हवा साहित्य पूर्णतः नष्ट हो गया किन्तु फिर भी उस साहित्य का आंशिक ज्ञान मुनि परम्परा में सुरक्षित रह गया था। आचार्य धरसेन ऐसे प्रथम मुनि माने गये जिन्हें महावीर स्वामी से पूर्व से भी चले आने वाले पूर्वो के अंश का ज्ञान था जिसे उन्होंने अपने दो शिष्यों पुष्पदन्त और भूतबलि को प्रदान किया । इन दो मुनियों ने उसी ज्ञान के आधार पर षट्खण्डागम मूत्र की रचना की। यह रचना कन्नड़ लिपि में ताड़ पत्र पर सुरक्षित थी जिसे डा० हीरालाल जैन ने टीका और अनुवाद के साथ तेईस भागों में प्रकाशित कराया है। दिगम्बर सम्प्रदाय इसे ही सर्वाधिक प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ मानता है। विद्वानों के मतानुसार यह दूसरी ईसवी की रचना प्रतीत होती है । इसे चार अनुयोगों-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग में विभाजित किया गया है। साहित्यिक दृष्टि से प्रथमानुयोग बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पुराणों, चरितों, कथाओं तथा आख्यानों का समावेश किया गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में इन्हीं अनुयोगों का भाष्य चणि और टीका द्वारा बहत विस्तार से किया गया है। पाहुड़ नामक ग्रन्थ इन्हीं पर आधारित है जिनमें अनुयोगों के प्रतिपाद्य का ही पल्लवन हुवा है।
रामसिंह मुनि द्वारा पाहुड़ दोहा लिखा गया था जिसमें २२२ दोहे थे । इसी से मिलती-जुलती जो इन्दु की दो रचनाएं परमार्थ प्रकाश और योगसार है। इन तीनों रचनाओं में साहित्य की उन प्रवत्तियों का मल दिखाई पड़ता है जो परवर्ती हिन्दी साहित्य में सन्तों की रचना में देखने को मिलता है। पाहड़ दोहा में बाहरी कर्मकांड को व्यर्थ कहा गया है तथा आत्म संयम एवं आत्म दर्शन में हो सच्चा कल्याण माना गया है। योगियों के बाह्याडम्बर पर करारा प्रहार है तथा शरीर को ही कुटि या देवालय मानने का उपदेश देते हुए आत्मा को शिव और इन्द्रिय वृत्तियों को शक्ति रूप में देखने का उपदेश कई दोहों में दिखाई पड़ता है। डा० हीरालाल जैन ने इसकी प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए यह ठीक ही कहा है कि 'शैली में यह रचना (पाहड़ दोहा) एक ओर बौद्ध दोहा कोशों और चर्यापदों से समानता रखती है और कबीर जैसे संतों की वाणियों से दो दोहों(९९-१००) देह और आत्मा अथवा आत्मा और परमात्मा का प्रेयसी और प्रेमी के रूप में वर्णन किया गया है जो पीछे से सफी सम्प्रदाय की काव्यधारा का स्मरण दिलाता है। वस्तुतःपाहड़ २. भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का योगदान
-हीरालाल जैन, पृष्ठ ११
बी. नि. सं. २५०३
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