________________ 34 आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ जैन धर्म एक विशाल और विराट धर्म है। यह मनुष्य की आत्मा को साथ लेकर चलता है। यह किसी पर बलात्कार नहीं करता। साधना में मुख्य तत्त्व सहज भाव और अन्तःकरण की स्फूर्ति है। अपनी इच्छा से और स्वतः स्फूर्ति से जो धर्म किया जाता है, वस्तुतः वही सच्चा धर्म है, शेष धर्माभास या जाता है, वस्तुतः वही सच्चा धर्म है, शेष धर्माभास मात्र होता है। जैन धर्म में किसी भी साधक से यह नहीं पूछा जाता कि तू ने कितना किया है? वहाँ तो यही पूछा जाता है, कि तू ने कैसे किया है ? सामायिक, पौषध या नवकारसी करते समय तू शुभ संकल्प शुद्ध भावों के प्रवाह में बहता रहा है या नहीं ? यदि तेरे अन्तर में शांति नहीं रही, तो वह क्रिया केवल क्लेश उत्पन्न करेगी-उससे धर्म नहीं होगा। क्योंकि “यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः।" जैन धर्म की साधना का दूसरा पहलू यह है कि मनुष्य अपनी शक्ति का गोपन कभी न करे। जितनी शक्ति है, उस को छुपाने की चेष्टा मत करो। शक्ति का दुरुपयोग करना यदि पाप है, तो उसका उपयोग न करना भी पापों का पाप है-महापाप है। अपनी शक्ति के अनुरूप जप, तप और त्याग जितना कर सकते हो, अवश्य ही करो। एक प्राचार्य के शब्दों में हमें यह कहना ही होगा "जं सक्कइ तं कीरइ, जं च न सक्कइ तस्स सद्दहणं / सद्दहमाणो जीवो, पावइ अजरामरं गणं / " "जिस सत्कर्म को तुम कर सकते हो, उसे अवश्य करो। जिस को करने की शक्ति न हो, उस पर श्रद्धा रखो, करने की भावना रखो। अपनी शक्ति के तोल के मोल को कभी न भूलो।" श्राचारांग में साधकों को लक्ष्य कर के कहा गया है-"जाए सद्धाए निक्खंता तमेव अणुपालिया।" साधको! तुम साधना के जिस महामार्ग पर आ पहुँचे हो, अपनी इच्छा से,—उस का वफादारी के साथ पालन करो। श्रावक हो, तो श्रावक कर्म का और श्रमण हो, तो श्रमण धर्म का श्रद्धा और निष्ठा के साथ पालन करो। साधना के पथ पर शून्य मन से कभी मत चलो। सदा मन को तेजस्वी रखो। स्फूर्ति और उत्साह रखो। कितना चले हो, इस की ओर ध्यान मत दो। देखना यह है कि कैसा चले हैं। चित्रमुनि ने चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त को कहा था-"राजन् , तुम श्रमणत्व धारण नहीं कर सकते, कोई चिन्ता की बात नहीं। तुम श्रावक भी नहीं बन सकते, न सही। परन्तु, इतना तो करो कि अनार्य कर्म मत करो। करना हो, तो आर्य कर्म ही करो।" इस से बढकर इच्छायोग और क्या होगा? इस से अधिक सरल और सहज साधना और क्या होगी? जैन धर्म का यह इच्छा योग मानव समाज के कल्याण के लिए सदा द्वार खोले खड़ा है। इस में प्रवेश करने के लिए धन, वैभव और प्रभुत्व की आवश्यकता नहीं है। देश, जाति और कुल का बन्धन भी नहीं है। आवश्यकता है, केवल अपने सोए हुए मन को जगाने की, और अपनी शक्ति को तोल लेने की। __ आज के अशान्त मानव को जब कभी शांति और सुख की जरूरत होगी, तो उसे इस सहज धर्मइच्छायोग की साधना करनी ही होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org