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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
सामान्यतया जैनागमों में अज्ञान और अयथार्थ ज्ञान दोनों के लिए मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग हुआ है। यही नहीं किन्हीं सन्दर्भों में अज्ञान, अयथार्थ ज्ञान, मिध्यात्व और मोह समानार्थक रूप में प्रयुक्त भी हुए हैं। यहाँ पर हम अज्ञान शब्द का प्रयोग एक विस्तृत अर्थ में कर रहे है जिसमें उसके उपर्युक्त सभी अर्थ समाहित हैं। नैतिक दृष्टि से अज्ञान नैतिक आदर्श के अज्ञान का अभाव और शुभाशुभ विवेक की कमी को अभिव्यक्त करता है। जब तक प्राणी को स्व-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है अर्थात् मैं क्या हूँ ? मेरा आदर्श क्या है? या मुझे क्या प्राप्त करना है? तब तक वह नैतिक जीवन में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। जैन जैन दर्शन में मिध्यात्व के प्रकार विचारक कहते हैं कि जो आत्मा के स्वरूप को नहीं जानता, जड़ पदार्थों के स्वरूप को नहीं जानता, वह क्या संयम की आराधना (नैतिक साधना) करेगा ? १
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को सम्यक् रूप से नहीं जान पाता है । बुद्ध कहते हैं- "आस्वाद दोष और मोक्ष को यथार्थतः नहीं जानता है, यही अविद्या है। मिथ्या '६ स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बुद्ध कहते हैं 'जो मिथ्यादृष्टि है— मिथ्या समाधि है। इसी को मिथ्या स्वभाव कहते हैं। "७ मिध्यात्व को हम एक ऐसा दृष्टिकोण कह सकते हैं जो सत्यता की दिशा से विमुख है। संक्षेप में मिथ्यात्व असत्याभिरुचि है, राग और द्वेष के कारण दृष्टिकोण का विकृत हो जाना है।
ऋषिभाषितसूत्र में तरुण साधक अर्हत् गाथापतिपुत्र कहते होता है, वह नैसर्गिक मिध्यात्व है। हैं- अज्ञान ही बहुत बड़ा दुःख है। अज्ञान से ही भय का जन्म होता हैं। समस्त देहधारियों के लिए भव-परम्परा का मूल विविध रूपों में व्याप्त अज्ञान ही है जन्म- जरा और मृत्यु भय - शोक, मान और अपमान सभी जीवात्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं। संसार का प्रवाह (संतति) अज्ञानमूलक है। २
भारतीय नैतिक चिन्तन में मात्र कर्मों की शुभाशुभता पर ही विचार नहीं किया गया वरन् यह भी जानने का प्रयास किया गया कि कर्मों की शुभाशुभता का कारण क्या है क्यों एक व्यक्ति अशुभकृत्यों की ओर प्रेरित होता है और क्यों दूसरा व्यक्ति शुभकृत्यों की ओर प्रेरित होता है? गीता में अर्जुन यह प्रश्न उठाता है कि हे कृष्ण! नहीं चाहते हुए भी किसकी प्रेरणा से प्रेरित हो, वह पुरुष पापकर्म में नियोजित होता है?"
जैन दर्शन के अनुसार इसका जो प्रत्युत्तर दिया जा सकता है, वह यह है कि मिथ्यात्व ही अशुभ की ओर प्रवृत्ति करने का कारण है। बुद्ध का भी कथन है कि मिध्यात्व ही अशुभाचरण और सम्यग्दृष्टि ही सदाचरण का कारण है। गीता का उत्तर है- रजोगुण से उत्पन्न काम ही ज्ञान को आवृत कर व्यक्ति को बलात् पापकर्म की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध, जैन और गीता के आचार-दर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं- अनैतिक आचरण के मार्ग में प्रवृत्ति का कारण व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण ही है।
आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने मिध्यात्व को उत्पत्ति की दृष्टि से दो प्रकार का बताया है:
१. नैसर्गिक (अनर्जित)- जो मिध्यात्व मोहकर्म के उदय से
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२. परोपदेशपूर्वक जो मिथ्या धारणा वाले लोगों के उपदेश से स्वीकार किया जाता है अतः यह अर्जित या परोपदेशपूर्वक मिथ्यात्व है।
यह अर्जित मिथ्यात्व चार प्रकार का है(अ) क्रियावादी- आत्मा को कर्ता मानना (अ) अक्रियावादी आत्मा को अकर्ता मानना
माना गया है।
१. एकान्त जैनतत्त्वज्ञान में वस्तुतत्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। उसमें समान जाति के अनन्त गुण ही नहीं होते हैं वरन् विरोधी गुण भी समाहित होते हैं। अतः वस्तुत्तत्त्व का एकांगी ज्ञान उसके सन्दर्भ में पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता, वह आंशिक सत्य होता है, पूर्ण सत्य नहीं आंशिक सत्य को जबपूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो वह मिथ्यात्व हो जाता है। न केवल जैन-विचारणा वरन् बौद्धविचारणा में भी ऐकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है। बुद्ध कहते हैं"भारद्वाज ! सत्यानुरक्षक विज्ञ पुरुष को एकांश से ऐसी निष्ठा करना योग्य नहीं है कि यही सत्य और बाकी सब मिथ्या है।" बुद्ध इस सारे कथानक में इसी बात पर बल देते हैं कि सापेक्षिक कथन के रूप में ही सत्यानुरक्षक होता है अन्य प्रकार से नहीं । उदान में भी बुद्ध ने कहा हैजो एकांतदर्शी हैं वे ही विवाद करते हैं। इस प्रकार बुद्ध ने भी एकांत को मिध्यात्व माना है।
मिथ्यात्व क्या है?
जैन विचारकों की दृष्टि में वस्तुतत्व का अपने यथार्थ स्वरूप का बोध नहीं होना ही मिध्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य विमुखता है, २. विपरीत - वस्तुतत्त्व का उसके स्व-स्वरूप के रूप में तत्त्वरुचि का अभाव है, सत्य के प्रति जिज्ञासा या अभीप्सा का अभाव ग्रहण नहीं कर उसके विपरीत रूप में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है। प्रश्न है। | बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी কটট{ ७२
(स) अज्ञानी - सत्य की प्राप्ति को सम्भव नहीं मानना (द) वैनयिक रूपरम्पराओं को स्वीकार करना।
स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व पाँच प्रकार का भी
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Sara
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