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जैन संस्कृति का आलोक
विना अपायों से कोई बच नहीं सकता।'
ओर तीर्थंकरों के (अष्ट महाप्रतिहार्य आदि) श्रेष्ठतम साम्पतिक
वैभव तथा दूसरी ओर प्राणियों के अत्यंत घोर कष्टमय विपाक-विचय
नारकीय जीवन – ये दोनों एक दूसरे के अत्यंत विरुद्ध अनादिकाल से सांसारिक आत्माओं के साथ कर्म हैं। ध्यातव्य विषयों पर अपने चिंतन को कर्मविपाक के संलग्न है। यह संलग्नता तब तक चलती रहेगी, जब तक वैचित्र्य के साथ जोड़े -- कर्मों का फल कितना विभिन्नसंयम और तप द्वारा व्यक्ति उनका संपूर्णतः क्षय नहीं कर विचित्र है क्या से क्या हो जाता है। इस ध्यान द्वारा डालेगा। जैन दर्शन में कर्मवाद का जितना विशद, व्यापक साधक को कर्म विमुक्ति की यात्रा पर अग्रसर होने की
और विस्तृत विवेचन है, वैसा अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं । प्रेरणा मिलती है। होता।
संस्थान विचय प्रतिक्षण कर्मों की फलात्मक परिणति होती रहती है,
इस लोक का न आदि है और न अंत। स्थितिउसे कर्म-विपाक कहा जाता है। ध्यानाभ्यासी कर्मविपाक
मूलतः सदैव ध्रुव या शाश्वत बने रहना । उत्पत्ति - के ध्येय के रूप में परिगृहीत कर उस पर अपना चिंतन
नये-नये पर्यायों का उत्पन्न होना, व्यय - उनका मिटना, स्थिर. एकाग्र करता है। उसे विपाक विचय ध्यान कहा
यों यह लोक 'उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक' है। लोक के जाता है।
संस्थान-अवस्थिति या आकृति का जिस ध्यान में चिंतन इस ध्यान द्वारा साधक में कर्मों से पृथक् होते उन्हें किया जाता है उसे संस्थान विचय कहा जाता है। २ निर्जीर्ण करने तथा आत्मभाव से संपृक्त होने की संस्फूर्ति
इस ध्यान के फल का निरूपण करते हुए लिखा हैका उद्भव होता है।
इस लोक में नाना प्रकार के द्रव्य हैं। उनमें अनंत पर्याय अपाय-विचय और विपाक विचय दोनों की दिशाएँ परिवर्तित-नवाभिनव रूप में परिणत होते जाते हैं, पुराने लगभग एक जैसी हैं। अंतर केवल इतना-सा है कि मिटते जाते हैं, नये उत्पन्न होते जाते हैं। उन पर मनन, अपाय विचय के चिंतन का क्षेत्र व्यापक है और विपाक एकाग्र चिंतन करने से मन जो निरन्तर उनसे जुड़ा रहता विचय का उसकी अपेक्षा सीमित है-कर्मफल तक अवस्थित है। राग-द्वेष आदिवश आकुल नहीं होता। इस ओर से है। विपाक विचय के चिन्तन क्रम को स्पष्ट करते हुए अनासक्त बनता जाता है। जागतिक पर्यायों पर, जो आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है - साधक अपने समक्ष एक अनित्य हैं, ध्यान करने से जगत् के अनित्यत्व का भान
१. रागद्वेष कषायायैर्जाय मानान् विचिन्तयेत् ।
यत्रापायांस्तदपाय विचय ध्यानमुच्यते।। ऐहिकामुष्मिकापाय-परिहार परायणः ततः प्रति निवर्तेत समन्तात पापकर्मणः।।
- योगशास्त्र १०/१०.११
२. प्रतिक्षण समुद्भूतो यत्र कर्म फलोदयः
चिन्त्यते चित्ररूपः स विपाक विचयोदयः।। या संपदाऽर्हतो या च, विपदा नारकात्मनः, एकातपत्रता तत्र, पुण्यापुण्यस्य कर्मणः।।
-योगशास्त्र १०/१२,१३
३. अनाद्यनन्त लोकस्य, स्थित्युत्पत्ति व्ययात्मनः। आकृति चिन्तयेयत्र संस्थान विचयण सत।।
- योगशास्त्र १०-१४
| जैन साधना और ध्यान
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