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जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
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का विवेचन किया गया है। जिस प्रकार सप्तभङ्गी में अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य के संयोग से चार यौगिक भंग प्राप्त किये गये हैं, उसी प्रकार संभाव्यता तर्कशास्त्र में A, B और C तीन स्वतन्त्र घटनाओं से चार युग्म घटनाओं को प्राप्त किया गया है, जो इस प्रकार है
P (AB) = P (A). P (B)
P (AC ) = P (A). P (C)
P ( B C ) = P (B). P (C)
P (ABC ) = P (A) P (B). P (C)
यहाँ P = संभाव्य और A, B और C तीन स्वतन्त्र घटनायें हैं । यद्यपि सप्त भङ्गी के सभी भङ्ग न तो स्वतन्त्र घटनायें हैं और न सप्तभंगी का 'स्यात्' पद संभाव्य ही है, तथापि सप्तभंगी के साथ उपर्युक्त सिद्धान्त की आकारिक समानता है। इसलिए यदि उक्त सिद्धान्त से 'आकार' ग्रहण किया जाय तो सप्तभङ्गी का प्रारूप हूबहू वैसा ही बनेगा जैसा कि उपर्युक्त सिद्धान्त का है । यदि सप्तभङ्गी के मूलभूत भङ्गों, स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य को क्रमश: A, B और — C तथा परिमाणक रूप 'स्यात् ' पद को P और च को डाट (.) से प्रदर्शित किया जाय, तो सप्तभङ्गी के शेष चार भङ्गों का प्रारूप निम्नवत् होगा
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स्यादस्ति च नास्ति = P ( A. B ) = P (A). P ( — B) स्यादस्ति च अवक्तव्य = P (A. – C ) = P (A). P (C) स्यान्नास्ति च अवक्तव्य = ( P – B – C ) = P (— B). P (C) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्य = P (A. - B. C) = P (A)•
इस प्रकार सम्पूर्ण सप्तभङ्गी का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा
(१) स्यादस्ति = P (A)
(२) स्यान्नास्ति = P ( — B)
(३) स्यादस्ति च नास्ति = P ( A - B )
(४) स्यात् अवक्तव्य = P (C)
(५) स्यादस्ति च अवक्तव्य = P (A. - C)
P(—B). P (—C)
(६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्य - P (B-C )
(७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्य = P (A. B. —C)
प्रस्तुत विवरण में A स्वचतुष्टय, B परचतुष्टय और C वक्तव्यता के सूचक हैं, B और C का निषेध ( - ) वस्तु में परचतुष्टय एवं युगपत् व्यक्तव्यता का निषेध करता है। जैन तर्कशास्त्र की यह मान्यता है कि जिस तरह वस्तु में भावात्मक धर्म रहते हैं, उसी तरह वस्तु में अभावात्मक धर्म भी रहते हैं । वस्तु में जो सत्व धर्मं हैं, वे भाव रूप हैं और जो असत्व धर्म हैं, वे अभाव रूप हैं । इसी भाव रूप धर्म को विधि अर्थात् अस्तित्व और अभाव रूप धर्म को प्रतिषेध अर्थात् नास्तित्व कहते हैं
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सदसदात्मकस्य वस्तुनो यः सदशः - भावरूपः स विधिरित्यर्थः । सदसदात्मकस्य वस्तुनो योऽसदंशः अभावरूपः स प्रतिषेध इति । ( प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३/५६-५७ )
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