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जैन संस्कृति के प्रमुख पर्यों का विवेचन | ४८३
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नौ दिन तक आयम्बिल करे । इस प्रकार नौ ओली होने पर इक्यासी आयम्बिल होते हैं और यह तप पूरा होता है इस तप की आराधना से दुष्ट कुष्ठ ज्वर क्षय भगंदरदि रोग नष्ट होते हैं, उपासक सब प्रकार से सुखी होता है।
श्रीपाल ने अवसरानुसार प्रथम ओली की जिसके परिणामस्वरूप उसका कुष्ठ रोग समाप्त हो गया तथा उसने सातसौ कोढ़ियों का यह रोग समाप्त करने में भी योग दिया, श्रीपाल के अब तक के मंद भाग्य भी खुलने लगे और वह असीम ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी बना। यह पर्व सिद्धचक्र के नाम से भी जाना जाता है। नवपद पर्व भी आयम्बिल ओली पर्व का ही नाम है ।२६ ।
ज्ञानपंचमी-कार्तिक शुक्ला पंचमी, ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी और श्रावण शुक्ला पंचमी को अलग-अलग मान्यतानुसार इस पर्व की आराधना की जाती है। मान्यता है कि इन दिनों ज्ञान की आराधना से विशिष्ट फल प्राप्त होते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म क्षय होकर ज्ञान योग्य सामग्री सुलभ बनती है, इस पर्व से सम्बन्धित कथा का सार यही है कि ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के उपकरणों की आशातना, अवज्ञा, विराधना और तिरस्कार से जीव को दारुण दुःखदायी यातनाएं प्राप्त होती हैं तथा ज्ञान की आराधना करने से जीव सम्यक् सुख प्राप्त करता है । ज्ञान की आराधना के लिए किसी दिन विशेष को नियत करने की मान्यता आज का वातावरण स्वीकार नहीं करता है क्योंकि प्रत्येक समय ज्ञाना राधना की जा सकती है तथा ज्ञानाराधना भी की जानी चाहिए।
अन्य पर्व-जन संस्कृति के कुछ प्रमुख पर्वो का विवेचन प्रस्तुत निबन्ध में किया गया है । पर्यों से सम्बन्धित साहित्य को देखने पर मुझे अन्य कई और पर्यों से सम्बन्धित सामग्री भी प्राप्त हुई प्रत्येक पर्व की आराधना के महत्त्व को प्रदर्शित करने के लिए उसके साथ कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं, उन कथाओं का उद्भव कब हुआ इसके बारे में समय निर्धारण ज्ञात नहीं किया जा सका, अत: उनके नामोल्लेख कर देना ही पर्याप्त समझता हूँ, इन पर्वो के साथ फल प्राप्ती के लिए व्रत आराधना की जाती है तथा ये पूरे वर्ष चलते रहने वाले सामान्य पर्व हैं अतः इन्हें नित्य पर्व की संज्ञा देना उचित लगता है । मूर्तिपूजक समाज के साहित्य में इन पर्वो के बारे में उल्लेख मिलता है । अधिकांश पर्व तीर्थंकरों के कल्याणकों की तिथियों पर ही आते हैं-कुछ पदों के नाम निम्नांकित हैं-अष्टान्हिका, रत्नत्रय, लाब्धिविधान, आदित्यवार, कोकिलापंचमी, पुष्पाञ्जली, मौन एकादशी, गरुडपंचमी, मोक्ष सप्तमी, श्रावण द्वादशी, मेघमाला, त्रिलोक तीज, आकाश पंचमी, चन्दन षष्ठी, सुगन्ध दशमी, अनन्त चतुर्दशी, रोहिणी, नागपंचमी, मेरुत्रयोदशी आदि ।
टीकमगढ़ से प्रकाशित 'जैन व्रत विधान संग्रह' पुस्तक में ही १६४ पर्यों का उल्लेख है । विस्तार भय से उनका नामोल्लेख भी संभव नहीं है। प्रत्येक पंचांग में सम्बन्धित तिथि के सामने पों का उल्लेख रहता है, धारणा है कि ये सामान्य पर्व केवल लौकिक लामों को प्राप्त करने के लिए ही आचार्यों द्वारा नियत किये गये हों, इनसे जुड़ी कथाएँ केवल लौकिक लाभ का प्रदर्शन ही करती हैं जबकि अक्षय तृतीय, संवत्सरी, दीपमालिका आदि विशुद्ध रूप से लोकोत्तर पर्व हैं उनके बारे में जैन ही नहीं जैनेतर साहित्य में भी सामग्री प्राप्त होती है।
प्रस्तुत निबन्ध में पर्वो की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विवेचन ही प्रस्तुत किया गया है, इन पर्यों की आराधना एक अलग से पूर्ण विषय है, जिस पर विद्वानों को लिखने की आवश्यकता है। पर्वो की सम्यक् आराधना करने पर लोकोत्तर-पथ प्रशस्त बनता है तथा आत्मा सिद्ध स्थान के निकट पहुंचती है ।
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१ आवश्यक चूणि, पृ० १६२-१६३, आव. नियुक्ति, त्रिषष्ठि श० पु० च० २ आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० १४५॥१, त्रि० श० पु० च० आवश्यक चूणि १३३ ३ आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, आव० मल० वृत्ति, त्रि० श० पु० च०
आवश्यक मल० वृ०, पृ० २१८११ ५ महापुराण जिन० ७८।२०।४५२ । समवायांग सूत्र १५६।१५, १६, १७, आव०नि० गाथा ३४४, ३४५, त्रिषष्ठि० आदि ७ पर्युषण पर्व : आर्य जैन, सुखमुनि ८ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्ष २, काल अधिकार, पृ० ११४-११७
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