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मतः संस्कृत, प्राकृत और पालि जिनमें भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप निहित है, नष्ट हो जायेगा ।
जैन शिक्षण प्रणाली
जैनकालीन शिक्षा मन्दिरों, आश्रमों और मठों में दी जाती थी । शिक्षा देने वाले आचार्य प्रायः समाज से दूर वनों में रहते थे, जो त्यागी, तपस्वी, ब्राह्मण या साधु हुआ करते थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत, प्राकृत, पालि तथा प्रान्तीय भाषाएँ थीं ।
जैन शिक्षण प्रणाली में जब बालक पाँच वर्ष का हो जाता है तब उसका लिपि संस्कार करने का विधान है । जिसके अन्तर्गत बालक घर में अ, आ, इ, ई आदि वर्ण का ज्ञान तथा अंक आदि का ज्ञान प्राप्त करता है । तत्पश्चात् जब बालक आठ वर्ष IT हो जाता है तब उसकी उपनीति क्रिया' होती है जिसके अन्तर्गत केशों का मुण्डन, मूंज की मेखला, सफेद वस्त्र, चोटी सात लर का यज्ञोपवीत धारण करना तथा जिनालय में पूजन करना, भोजन के लिए भिक्षावृत्ति तथा ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करने का विधान है। ये सभी नियम प्रत्येक विद्यार्थी
लिए अनिवार्य माने गए हैं चाहे वह निर्धन कुल का हो या राजकुल का, सभी को जैन शिक्षणप्रणाली में समान भाव से देखा जाता था । क्रिया के पश्चात् विद्यार्थी गुरुकुल में होता था । उपनीति क्रिया के पश्चात् व्रतचर्या संस्कार का विधान है जिसमें विद्यार्थी का एक ही लक्ष्य रहता है संयमित जीवनयापन करते हुए विद्याध्ययन करना। चौथा और अन्तिम संस्कार है- व्रतावरण क्रिया । जो समस्त विद्याओं के अध्ययन के पश्चात् होती है । यह संस्कार बारह अथवा सोलह वर्ष बाद गुरु के साक्षपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके करने का विधान है।
अतः यह कहा जा सकता है कि जैन शिक्षण प्रणाली में विद्यार्थी को विघ्न-बाधाओं से लड़ना तथा दुर्गुणों का त्याग कर सद्गुणों को आत्मसात् करना सिखाया जाता था । गुरु-शिष्य के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण थे । विद्यार्थी भी अपने गुरुओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा के भाव रखते थे । सन्तोष, निष्कपट व्यवहार, जितेन्द्रियता और शास्त्रानुकूल प्रवृत्ति आदि गुरुकुलवास के मुख्य प्रयोजन थे ।
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में
विद्यार्थी को विनयशील, सदाचारी, मृदुभाषी इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनशिक्षण प्रणाली आदि बनाने के साथ ही चरित्र निर्माण पर विशेष बल दिया गया है । जिसका आज की शिक्षण प्रणाली में सर्वथा अभाव पाया जाता है । आधुनिक शिक्षण-प्रणाली
आधुनिक शिक्षण प्रणाली तत्कालीन भारतसचिव लार्ड मैकाले द्वारा मानी जाती है । जिसकी नींद मैकाले ने अपने परिपत्र द्वारा सन् १९३५ में डाली थी । जिसका उद्देश्य था भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के स्तर को ऊँचा उठाना । अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने मदरसे खोले जिसके परिणामस्वरूप भारतीय केवल रंग के भारतीय तथा मन से यूरोपीय सभ्यता के अनुयायो बनकर रह गये । शिक्षा का धर्म और नैतिकता से सम्बन्ध टूट गया तथा शिक्षा का क्षेत्र इहलोक तक ही सीमित होकर रह गया ।
अंग्रेजी शिक्षण-प्रणाली का ही दुष्परिणाम है कि जो शिक्षा और संस्कार बालक को मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। आज की शिक्षा अव्यावहारिक तथा अधूरी है जो समाज को, देश को बेरोजगारी की ओर अग्रसर कर रही है। इस प्रणाली ने छात्र को किताबी कीड़ा तो बना दिया
१ ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञ ेयः क्रियाविधिर्नामा लिपि संख्यान् संग्रह | - आदिपुराण ३८ / १०२
२ वही - ३० / १०४
३ वहो - ३८ / ११०-११३
४ वही - ३८ | १२३ - १२४
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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