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जैन दर्शन के विभिन्न आगम ग्रंथों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इनमें भी आयुर्वेद सम्बन्धी विषयों के पर्याप्त उद्धरण विद्यमान हैं। जैन आगम ग्रंथ, स्थानांग सूत्र और विपाक सूत्र आदि में आयुर्वेद के आठ प्रकार (अष्टांग आयुर्वेद), सोलह महारोगों और चिकित्सा सम्बन्धी विषयों का बहुत अच्छा वर्णन प्राप्त होता है। संक्षेप में यहां उनका उल्लेख किया जा रहा है--
आयुर्वेद के आठ प्रकार--१. कौमारशल्य (बाल चिकित्सा), २. काय चिकित्सा (शरीर के सभी रोग और उनकी चिकित्सा), ३. शालाक्य चिकित्सा (गले से ऊपर के भाग में होने वाले रोग
और उनकी चिकित्सा-इसे आयुर्वेद में 'शालाक्य तंत्र' कहा गया है), ४. शल्य चिकित्सा (चीर-फाड़ सम्बन्धी ज्ञान जिसे आजकल 'सर्जरी' कहा जाता है-इसे आयुर्वेद में 'शल्य तंत्र' की संज्ञा दी गई है), ५. जिगोली का विष विधात तंत्र (इसे आयुर्वेद में 'अगदतंत्र' कहा जाता है-इसके अन्दर सर्प, कीट, लूता, मूषक आदि के विषों का वर्णन तथा चिकित्सा एवं विष सम्बन्धी अन्य विषयों का उल्लेख रहता है), ६. भूतविद्या (भूत-पिशाच आदि का ज्ञान
और उनके शमनोपाय का उल्लेख), ७. क्षारतंत्र (वीर्य सम्बन्धी विषय और तद्गत विकृतियों की चिकित्सा-इसे आयुर्वेद में "बाजीकरणतंत्र" की संज्ञा दी गई है), ८. रसायन (इसके अतर्गत स्वस्थ पुरुषो द्वारा सेवन योग्य ऐसे प्रयोगों एवं विधि-विधानों का उल्लेख है जो असामयिक वृद्धावस्था को रोककर मनुष्य को दीर्घायु, स्मृति, मेघा, प्रभा, वर्ण, स्वरोदार्य आदि स्वाभाविक शक्तियां प्रदान करते हैं)।
इसी प्रकार जैन आगम ग्रंथों में सोलह महारोग-प्रवास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगंदर, अलस-भागासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, म तकशूल, अरोचक, अक्षिवेदना, कर्ण वेदना, कण्ड-खुजली, ढकोदरजलोदर, कुष्ठ-कोढ़ गिनाए गए हैं। रोगों के चार प्रकार बतलाए गए हैं--वात्तजन्य, पित्त जन्य, श्लेष्म जन्य और सन्निपातजन्य । चिकित्सा के चार अंग प्रतिपादित हैं--वैद्य, औषधि, रोगी और परिचारक । जैनागमानुसार चिकित्सक चार प्रकार के होते हैं-- बचिकित्सक, पर चिकित्सक, स्त्रपर चिकित्सक और सामान्य ज्ञाता। जैन आगमों में प्राप्त विवेचन के अनुसार रोगोत्पत्ति के नौ कारण होते हैं
१. अतिआहार, २. अहिताशन, ३. अतिनिद्रा, ४. अतिजागरण, ५. मूत्रावरोध, ६. गलावरोध, ७. अध्वगमन, ८. प्रतिकूल भोजन और ९. काम विकार। यदि इन नौ कारणों से मनुष्य बचता रहे तो उसे रोग उत्पन्न होने का भय बिल्कुल नहीं रहता। इस प्रकार जैन ग्रंथों में आयुर्वेद सम्बन्धी विषयों का उल्ले प्रचुर रूप से मिलता है, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि जैनाचार्यों को आयुर्वेद शास्त्र का भी पर्याप्त ज्ञान रहता था और वे इस शास्त्र के उत्कृष्ट ज्ञाता थे। ___ सम्पूर्ण जैन वाङमय का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि उसमें अहिंसा तत्व की प्रधानता है और उसमें अहिंसा को सर्वोपरि प्रतिष्ठापित किया गया है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में यद्यपि
आध्यात्मिकता को पर्याप्त रूपेण आधार मानकर वही भाव प्रतिष्ठापित किया गया है और उसमें यथा सम्भव हिंसा को वजित किया गया है, किन्तु कतिपय स्थलों पर अहिंसा की मूल भावना की उपेक्षा भी की गई है। जैसे भेषज के रूप में मधु, गोरोचन, विभिन्न आसव, अरिष्ट आदि का प्रयोग। इसी प्रकार बाजीकरण के प्रसंग में चटक मांस, कुक्कट मांस, हंसशुक्र, मकर शुक्र, मयूर मांस के प्रयोग एवं सेवन का उल्लेख मिलता है। कतिपय रोगों में शूकर मांस, मृग मांस तथा अन्य पशु-पक्षियों के मांस के सेवन का उल्लेख मिलता है। ऐसे प्रयोगों से आयुर्वेद में अहिंसा भाव की पूर्णतः रक्षा नहीं हो पाई है। अतः ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था जिससे जैन साधुओं के लिए इस प्रकार का आयुर्वेद और उसमें वणित चिकित्सा उपादेय नहीं हुई। जैन साधुओं के अस्वस्थ होने पर उन्हें केवल ऐसे प्रयोग ही सेवनीय थे जो पूर्णतः अहिंसक, अहिंसाभाव प्रेरित एवं विशुद्ध रीति से निर्मित हों। जैनाचार्यों ने इस कठिनाई का अनुभव किया और उन्होंने सर्वांग रूपेण आयुर्वेद का अध्ययन कर उसमें परिष्कार पूर्वक अहिंसा भाव को दृष्टिगत रखते हुए आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रंथों की रचना की। वे ग्रंथ जैन मुनियों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। जैन गृहस्थों ने भी उनका पर्याप्त लाभ उठाया। इसका एक प्रभाव यह भी हआ कि जैन साधुओं, साध्वियों, श्रावक एवं श्राविकाओं को चिकित्सार्थ जैन साधुओंविद्वानों को भी चिकित्सा कार्य में प्रवृत्त होना पड़ा।
___ कुछ समय पहले दिगम्बर भट्टारकों ने वैद्यक विद्या को ग्रहण कर चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया, कालान्तर में श्वेताम्बर जैन यतियों ने इसमें अत्यन्त दक्षता प्राप्त की। बाद में ऐसा समय भी आया कि उनमें क्रमशः शिथिलता आतो गई। दिगम्बर आचार्यों और विद्वानों ने जिन आयुर्वेद के ग्रंथों का निर्माण किया है वे अधिकांशतः प्राकृत-संस्कृत भाषा में रचित हैं। चूंकि उन ग्रंथों के रख रखाव एवं प्रकाशन आदि की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, अतः उनमें से अधिकांशत: नष्ट या लुप्तप्राय हो चुके हैं। जो बचे हुए हैं उनके विषय में जैन समाज की रुचि न होने के कारण अज्ञात हैं। श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा जो ग्रंथ रचे गए हैं वे अधिकांशतः गत चार सौ वष से अधिक प्राचीन नहीं हैं। अतः उनकी रचना हिन्दी में दोहा-चौपाई आदि के रूप में की गई है। इस प्रकार के ग्रंथों में योग चिन्तामणि, वैद्यमनोत्सव, मेघविनोद, रामविनोद, गंगयति निदान आदि हिन्दी वैद्यक ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है।
संस्कृत के वैद्यकग्रंथों में पूज्यपाद विरचित "वैद्यसार" और उग्रदित्याचार्य विरचित "कल्याण कारक" नामक ग्रंथों का भी हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन हो चुका है। इनमें “वैद्यसार" के विषय में विद्वानों का मत है कि वह वस्तुतः पूज्यपाद की मौलिक कृति नहीं है, किसी अन्य व्यक्ति ने उनके नाम से इस ग्रंथ की रचना की है।
हिन्दी में रचित वैद्यक ग्रंथों का परिचय १. वैद्य मनोत्सव
यह ग्रंथ पद्यमय रूप से निबद्ध है और दोहा, सोरठा व चौपाई छन्दों में इसकी रचना की गई है । इससे इस ग्रंथ के रचनाकार का कवि होना प्रमाणित होता है। इस ग्रंथ के रचयिता कविवर नयन
वी.नि.सं. २५०३
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