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के दोनों पक्षों को उजागर करती है । नागश्री जैसी स्वार्थी गृहस्थिन ने विषाक्त भोजन को केवल इसलिए साधु के पात्र में डाल दिया कि उसकी निंदा न हो कि उसके द्वारा बनाया गया भोजन (शाक) कड़वा है अथवा विषाक्त है। किन्तु दूसरी ओर धर्मरुचि को जब यह पता लगा कि उसे भिक्षा में प्राप्त शाक कड़वा और विषाक्त है तो गुरु-आज्ञा से वह उसे निर्जन स्थान पर फेंकने को उद्यत हुआ। किन्तु यहीं उसकी अनुकम्पा सामने आ गई और उस साधु ने देखा कि इस एक बूंद शाक के लिए हजारों चीटियां यहां एकत्र हो गई हैं। यदि पुरा शाक यहां डाल दिया गया तो हजारों-लाखों प्राणियों का अनायास वध हो जायगा। अत: वह करुणामय साधु उस शाक को स्वयं पी गया।' करोडों प्राणियों के प्राण-वध से एक का प्राणान्त होना उसे अधिक श्रेयस्कर लगा। यह इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि जीवन की दष्टि से सभी प्राणियों का मूल्य बराबर है। इसीलिए प्राकृत कथाओं का यह प्रमुख स्वर है कि अहिंसा का यथासम्भव अधिक से अधिक पालन किया जाये। हिंसा के वातावरण को शान्त किया जाये।
अहिंसक समाज-निर्माण के प्रयोग
प्राकत कथाओं में अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए कई प्रयोग किये गये हैं। मानव के जीवन में अहिंसा के महत्त्व की इतनी भावना थी कि व्यक्ति यह प्रयत्न करता था कि यथा-सम्भव हिंसा का निषेध किया जाए। सूत्रकृतांग सूत्र में आर्द्रकुमार साधु की कथा वर्णित है। उन्होंने हिंसा के मूलकारण मांस-भक्षण का यूक्तिपूर्वक निषेध किया है। आवश्यकचूणि में अरहमित्त श्रावक के पुत्र जिनदत्त की कथा है। वह एक बार भयंकर रोग से पीड़ित हो जाता है। वैद्य उसे औषधि के साथ मांस-भक्षण आवश्यक बताते हैं। किन्तु वह अपने स्वाथ्य के लिए अन्य प्राणियों के वध से प्राप्त होने वाले मांस का भक्षण करना स्वीकार नहीं करता है। वसुदेवहिण्डी की एक कथा में चारुदत्त अपनी यात्रा के लिए बकरे को मारकर उसकी खाल लेना पसन्द नहीं करता, जबकि उसका मित्र उस दुर्गम प्रदेश में उसे आवश्यक बताता है
आगम भाष्य साहित्य में कालक कसाई के पुत्र सुलस की कथा प्रसिद्ध है। उसका पिता प्रतिदिन पांच सौ भैसे मारता था। अतः पिता के मर जाने पर सूलस को भी जब कुल की परम्परा का निर्वाह करने के लिए कहा गया कि वह परिवार के मुखिया का दायित्व किसी पशू पर तलवार का एक वार करके स्वीकार करे तो सुलस ने इस अकारण हिसा का विरोध किया एवं कहा कि इस हिंसा के पाप का भागी केवल मुझे होना पड़ेगा। तब परिवार वालों ने कहा कि तुम पशु को काटो। उसमें हम सब हिस्सेदार होंगे। सुलस ने उन्हें शिक्षा देने के लिए तलवार उठाकर उसका वार अपने पैर पर ही कर लिया। यह देखकर सब आश्चर्य-चकित हो गये। तब सुलस ने कहा अब आप सब मेरे पैर की इस पीडा को थोडी-थोड़ी बांट लें ताकि मुझे कष्ट न हो। परिवार वाले निरुत्तर हो गये क्योंकि किसी की पीड़ा को कौन बांट सकता है। सूलस ने उन्हें समझाया कि इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी को मारने पर उसे पीड़ा होती है । अतः हिंसा कभी सूखदायी नहीं हो सकती।
बलि में होने वाले पशुबध को रोकने के लिए भी जैन कथा-साहित्य में अनेक प्रसंग आये हैं। अजमेर के पास हर्षपुर नामक स्थान पर बकरे की बलि को रोकने के लिए राजा पुष्यमित्र के समय में आचार्य प्रियग्रन्थ ने श्रावकों की प्रेरणा से बकरे पर मन्त्र का प्रयोग कर उसे बलि से बचाया तथा उसकी वाणी में अहिंसा के महत्त्व को प्रतिपादित कराया है। पशुओं को अभयदान देने की यह बडी मार्मिक कथा । इसी तरह भाष्य-साहित्य में वणित मातंग यमपाश की कथा जीववध-निषेध की प्रसिद्ध कथा है। चांडाल कुल में जन्म लेने पर यमपाशी दिनों में जीववध नहीं करता। उसकी यह प्रतिज्ञा कई प्राणियों को जीवन प्रदान करती है और अन्ततः राजा को भी जीव-वध की निषेध. आज्ञा प्रसारित करनी पड़ती है।
प्राणि-वध की निषेधाज्ञा
प्राकत कथाओं में अहिंसा के प्रचार-प्रसार के लिए राजा द्वारा अपने राज्य में अमारि-पडह बजवाये जाने के भी उल्लेख मिलते
१. णायाधम्मकहा, अहिंसाठठतित्तालाउयं-भक्षणपद, अ० १६ २. सूत्रकृतांग, २, ६, २७-४२ ३. आवश्यकचूणि, २. पृ०२०,२ ४. वसुदेवहिण्डी एवं बधमानदेशना में वर्णित कथा । ५. प्राकृत का जैन कथा-साहित्य : डा० जगदीशचन्द्र जैन । ६. जैन कहानियां : मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम', भाग २,कथा : ७. कल्पमुखबोधिका, टीका २, अधि०८; जैनकथामाला भाग १५ : मुनि मधुकर ८. जैन कहानियां, भाग २१.
आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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