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जन रहस्यवाद
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२. जैन रहस्यवाद में ईश्वर को सुख-दुःख दाता नहीं माना गया। वहाँ तीर्थंकर की परिकल्पना मिलती है जो पूर्णतः वीतरागी और आप्त हो । अतः उसे प्रसाद-दायक नहीं माना गया। वह तो मात्र दीपक में रूप में पथदर्शक स्वीकार किया गया है। उत्तरकाल में भक्ति आन्दोलन हुए और उनका प्रभाव जैन साधना पर भी पड़ा । फलतः उन्हें भक्तिवश दुःखहारक और सुखदायक के रूप में स्मरण किया गया है। प्रेमाभिव्यक्ति भी हुई है पर उसमें भी वीतरागता के भाव अधिक निहित हैं ।
३. जैन साधना अहिंसा पर प्रतिष्ठित है। अतः उसकी रहस्यभावना भी अहिंसामूलक रही। षट्चक्र, कुण्डलिनी आदि जैसी तांत्रिक साधनाओं का जोर उतना अधिक नहीं हो पाया जितना अन्य साधनाओं में हुआ।
४. जैन रहस्यभावना का हर पथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप पर आधारित है। ५. स्व-पर-विवेक रूप भेदविज्ञान उसका केन्द्र है। ६. प्रत्येक विचार निश्चय और परमार्थ नय पर आधारित है।
जैन रहस्यभावना की परम्परा जैन और जैनेतर रहस्यभावना में अन्तर समझने के बाद हमारे सामने जैन साधकों की लम्बी परम्परा आ जाती है। उनकी साधना को हम आदिकाल, मध्यकाल और उत्तरकाल के रूप में विभाजित कर सकते हैं। इन कालों में जैन साधना का क्रमिक विकास भी दृष्टिगोचर होता है। जैन रहस्यवाद तीर्थंकर ऋषभदेव से प्रारम्भ होकर पार्श्वनाथ और महावीर तक पहुँची । महावीर से आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामि, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, अकलंक, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र, मुनि योगीन्दु देव, मुनि रामसिंह, आनन्दतिलक, बनासीदास, भगवतीदास, आनन्दघन, भूधरदास, द्यानतराय, दौलतराम प्रभृति जैन रहस्यसाधकों के माध्यम से रहस्यभावना की उत्तरोत्तर विकास होता गया ।
आदिकाल जैन परम्परा के अनुसार आदिनाथ ने हमें साधना-पद्धति का स्वरूप दिया। उसी के आधार पर उत्तरकालीन तीर्थकर और आचार्यों ने अपनी साधना की। इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की साधनाएँ साहित्य में उपलब्ध होती हैं।
पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्यभावना भगवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के २३वें तीर्थकर कहे जाते हैं। वे भगवान महावीर से, जिन्हें पालिसाहित्य में निगण्ठनाथपुत्त के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग २५० वर्ष पूर्व अवतरित हुए थे। त्रिपिटक में उनके साधनात्मक रहस्यवाद को चातुर्याम संवर के नाम से अभिहित किया गया है। ये चार संवर-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह हैं । उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में भी इनका विवरण मिलता है। पार्श्वनाथ के इन व्रतों में से चतुर्थ व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत अन्तर्भूत था। पार्श्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतों के आचरण में शैथिल्य आया और फलतः समाज ब्रह्मचर्य व्रत से पतित होने लगा। पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा में 'पार्श्वस्थ' अथवा 'पासत्थ' कहा गया है।
निगंठनाथपुत्त परम्परा की रहस्यसाधना निगंठनाथपुत्त अथवा महावीर के आने पर इस आचार शैथिल्य को परखा गया। उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नांकित पंचव्रतों को स्वीकार किया-१. अहिंसा २. सत्य, ३. अचौर्य ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह । महावीर के इन पंचव्रतों का उल्लेख जैन आगम साहित्य में तो आता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि-साहित्य में मिलते हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।'
१. विशेष देखिए---डा० भागचन्द्र जैन भास्कर का ग्रन्थ 'जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिटरेचर'-तृतीय अध्याय-जैन
ईथिक्स.
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