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द्रव्यरूप परिणाम वह है जिसे हम जीव कहते हैं और भावरूप परिणाम में अनन्त चतुष्ट्य - अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य की प्राप्ति मानी जाती है। इस प्रकार अध्यात्म से सीधा सम्बन्ध आत्मा का है। अध्यात्मशैली का मूल उद्देश्य आत्मा को कर्मजाल से मुक्त करना है । प्रमाद के कारण व्यक्ति उपेदशादि तो देता है पर स्वयं का हित नहीं कर पाता। वह वैसा ही रहता है जैसा दूसरों के पंकयुक्त पैरों को धोने वाला स्वयं अपने पैरों को नहीं धोता। यही बात कलाकार बनारसीदास ने अध्यात्मशैली को विपरीत रीति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इस अध्यात्मशैली को ज्ञाता साधक की सुदृष्टि ही समझ पाती हैअध्यातम शैली अन्य शैली को विचार तैसो, माता की सुदृष्टि मांहि लगे कविवर ने स्पष्ट किया है कि जिन-वाणी को समझने के सम्यक् विवेक और विचार से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है। हो जाता है और आत्मा अध्यात्मशैली के माध्यम से मोक्ष रूपी प्रासाद में प्रवेश कर जाता है।
तो अंतरी ॥४
एक और रूपक के माध्यम से आत्मज्ञान का अनुभव आवश्यक है।
जिन वाणी दुध माहि
निज स्वाद कंद विवेक विचार उपचार ए 'मिथ्या सोफी' मिहि गये 'शीरणी' शुकल ध्यान अनहद 'गान' गुणमान करें 'बनारसीदास' मध्य नायक सभा अध्यातम शैली चली मोक्ष के
में ॥
विजया सुमतिहार, बूंद चहलपहल में कंसूभौ कीन्हों, ज्ञान की गहल नाद' तान, सुजस सहल में । समूह में, महल में "
१. बनारसीविलास, पृ० २१०.
२. बनारसीविलास ज्ञानबावनी, पृ० २६.
३. वही, पृ० १३.
४. वही, पृ० ३८.
५. वही, पृ० ४५.
६. बनारसीविलास अध्यात्मफाग, पृ० १ १८.
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जैन रहस्यवाद
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सुख
बनारसीदास को अध्यात्म के बिना परम पुरुष का रूप ही नहीं
दिखाई देता । उसकी महिमा अगम और
अनुपम है । बसन्त का रूपक लेकर कविवर ने पूरा अध्यात्म फाग लिखा है । कुमति-रूपी रजनी का स्थितिकाल कम हो गया, मोह-पंक घट गया, संशय-रूपी शिशिर समाप्त हो गया, शुभ दल पल्लव लहलहा रहे हैं, अशुभ- पतझर हो रही है, विषयरति मालती मलिन हो गई, विरति वेलि फैल गई, विवेकशशि निर्मल हुआ, आत्मशक्ति सुचंद्रिका विस्तृत हुई. सुरति अग्नि ज्वाला जाग उठी, सम्यक्त्व-सूर्य उदित हो गया, हृदय कमल विकसित हो गया, कषाय-हिमगिरि गल गया, निर्जरा नदी में प्रवाह आ गया, धारणा-धार शिव-सागर की ओर बह चली, संवरभाव-गुलाल उड़ा, दयामिठाई, तप-मेव शील-जल संयमताम्बूल का सेवन हुआ, परम ज्योति प्रकट हुई होलिका में आग लगी, आठ काठ कर्म जलकर बुझ गये और विशुद्धावस्था प्राप्त हो गई।
और
अध्यात्मरसिक बनारसीदास आदि महानुभावों के उपर्युक्त गम्भीर विवेचन से यह बात छिपी नहीं रही कि उन्होंने अध्यात्मवाद और रहस्यवाद को एक माना है। दोनों का प्रस्थान बिन्दु लक्ष्य प्राप्ति तथा उसके साधन समान हैं । दोनों शान्तरस के प्रवाहक हैं ।
लिए सुमति और शुक्लध्यान प्रकट
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