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जैन, बौद्ध और औपनिषदिक ऋषियों के उपदेशों का प्राचीनक सङ्कलन : ऋषिभाषित
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की चर्चा है। इसी अध्याय में कषाय, निर्जरा, छ: जीवनिकाय और निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों के जिन सर्वप्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है। इकतीसवें पार्श्व नामक विचारों का उल्लेख किया गया है, उनमें कितनी प्रामाणिकता है। अध्ययन, में पुन: चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति, पंचास्तिकाय ऋषिभाषित के ग्यारहवें अध्याय में मंखलिपुत्र गोशालक का उपदेश तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। इसी अध्याय में संकलित है। मंखलिपुत्र गोशालक के सम्बन्ध में हमें जैन परम्परा में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी भगवतीसूत्र और उपासकदशांग में, बौद्ध परम्परा में दीघनिकाय के कहा गया है, किन्तु पार्श्व तो जैन परम्परा में मान्य ही हैं। अत: इस सामञमहाफलसुत्त और सुत्तनिपात में तथा हिन्दु परम्परा में महाभारत अध्याय में जैन अवधारणाएँ होनी आश्चर्यजनक नहीं है । अब विद्वानों के शान्तिपर्व के १७७ वें अध्याय में मंखी ऋषि के रूप में उल्लेख की यह धारणा भी बनी है कि जैन दर्शन का तत्त्वज्ञान पार्थापत्यों प्राप्त होता है। तीनों ही स्रोत उसे नियतिवाद का समर्थक बताते हैं। की ही देन है। शुब्रिग ने भी इसिभासियाइं पर पार्थापत्यों का प्रभाव यदि हम ऋषिभाषित अध्याय ११ में वर्णित मंखलिगोशालक के उपदेशों माना है। पुन: ३२वें पिंग नामक अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप को देखते हैं तो यहाँ भी हमें परोक्ष रूप से नियतिवाद के संकेत चारों वर्गों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। ३४वें अध्याय उपलब्ध हैं। इस अध्याय में कहा गया है कि जो पदार्थों की परिणति में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है। इसी अध्याय में पंच महाव्रत से को देखकर कम्पित होता है, वेदना का अनुभव करता है, क्षोभित युक्त, कषाय से रहित, छिनस्रोत, अनाश्रव भिक्षु की मुक्ति की भी होता है, आहत होता है, स्पंदित होता है, चलायमान होता है, प्रेरित चर्चा है। पुनः ३५वें उद्दालक नामक अध्याय में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, होता है वह त्यागी नहीं है। इसके विपरीत जो पदार्थों की परिणति तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पाँच समिति, पंचेन्द्रियसंयम, को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता, दुःखित नहीं योगसन्धान एवं नवकोटि परिशुद्ध, दश दोष से रहित विभिन्न कुलों की होता है वह त्यागी है। परोक्षरूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बन्ध परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शस्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख में नियतिवाद का प्रतिपादक है। संसार की अपनी एक व्यवस्था और है। इसी अध्याय में संज्ञा एवं २२ परिषहों का भी उल्लेख है। गति है वह उसी के अनुसार चल रहा है, साधक को उस क्रम का ज्ञाता द्रष्टा
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएँ तो होना चाहिए, किन्तु द्रष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। उपस्थित हैं। अत: यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही संसार के घटनाक्रम से साक्षी भाव से रहें। इस प्रकार यह अध्याय गोशालक अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलत: के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है। इसके ये अवधारणायें इन ऋषियों की ही थीं और वहाँ से जैन परम्परा में विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में जो मंखलिगोशालक के सिद्धान्त प्रविष्ट हुईं। यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित उल्लिखित ऋषियों में का निरूपण है वह वस्तुत: गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा पार्श्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतन्त्र साधक में निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है। वस्तुत: ऋषिभाषित रहे हैं या अन्य परम्पराओं के रहे हैं। यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख का रचयिता गोशालक के सिद्धान्तों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने उत्तराध्ययन और सूत्रकृतांग में भी हैं। यदि हम इस तथ्य को स्वीकार प्रामाणिक त्रिपिटक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं हैं। करते हैं कि इसमें जो विचार हैं वे उन ऋषियों के नहीं हैं तो ग्रन्थ महाभारत के शान्तिपर्व के १७७वें अध्याय में मंखि ऋषि का की और ग्रन्थकर्ता की प्रामाणिकता खण्डित होती है, किन्तु दूसरी उपदेश संकलित है। उसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है किन्तु ओर यह मानना कि ये सभी अवधारणायें जैन परम्परा में अन्य परम्पराओं दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है। इस अध्याय में मूलतः से प्रविष्ट हुई पूर्णत: सन्तोषप्रद नहीं लगता है। अत: सर्वप्रथम तो द्रष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है। यह अध्याय हम यह परीक्षण करने का प्रयत्न करेंगे कि ऋषिभाषित में जिन ऋषियों नियतिवाद के माध्यम से ही अध्यात्म का उपदेश देता है। इसमें यह के उपदेश संकलित हैं वे उनके अपने हैं या जैन आचार्यों ने अपनी बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है। मनुष्य अपने पुरुषार्थ बात को उनके मुख से कहलवाया है।
से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है अत: व्यक्ति को द्रष्टा ऋषिभाषित में उपदिष्ट अवधारणाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए। महाभारत के इस
यद्यपि ऋषिभाषित के सभी ऋषियों के उपदेश और तत्सम्बन्धी अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक साहित्य हमें जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध नहीं होता फिर भी इनमें मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा से कई के विचार और अवधारणाएँ आज भी अन्य परम्पराओं में उपलब्ध में प्रेरित बताया गया है। हैं। याज्ञवल्क्य का उल्लेख भी उपनिषदों में है। वज्जीयपुत्त, महाकाश्यप इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप
और सारिपुत्त के उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में हैं। इसी प्रकार में संकलित मिलता है वह निश्चित ही प्रामाणिक है। विदुर, नारायण, असितदेवल आदि के उल्लेख महाभारत एवं हिन्दू इसी प्रकार ऋषिभाषित के अध्याय ९ में महाकश्यप और अध्याय परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मिल जाते हैं। ऋषिभाषित में इनके जो ३८ में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं। ये दोनों ही बौद्ध परम्परा विचार उल्लिखित हैं, उनकी तुलना अन्य स्रोतों से करने पर हम इस से सम्बन्धित रहे हैं। यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों
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