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जैन प्रमाण-शास्त्र : एक अनुचिन्तन
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हुए उसे अकलंक के अभिप्रायानुसार श्रुतज्ञान बतलाया है और स्वार्थानुमान को अभिनिबोधरूप मतिज्ञानविशेष अनुमान कहा है । आगम की प्राचीन परम्परा यही है।'
श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम विशेष रूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग कारण के होने पर मन के विषय को जानने वाला जो अविशद ज्ञान होता है वह श्रत ज्ञान है ।२ अथवा आप्त के वचन, अंगुली आदि के संकेत से होने वाला अस्पष्ट ज्ञान श्रत (आगम) है। यह सन्तति की अपेक्षा अनादिनिधन है। उसकी जनक सर्वज्ञ परम्परा भी अनादिनिधन है। बीजांकुरसन्तति की तरह दोनों का प्रवाह अनादि है। अतः सर्वज्ञोक्त वचनों से उत्पन्न ज्ञान श्रुत है और वह निर्दोष पुरुषजन्य एवं अविशद होने से परोक्ष प्रमाण है। इस प्रकार परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं।
प्रत्यक्ष ___ अब दूसरे प्रमाण प्रत्यक्ष का भी संक्षेप में विवेचन किया जाता है। जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि पर की अपेक्षा से न होकर मात्र आत्मा की अपेक्षा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। आगम परम्परा के अनुसार प्रत्यक्ष का यही स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है । तत्वार्थ सूत्रकार और उनके आद्य टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दि ने प्रत्यक्ष का यही लक्षण बतलाया है। अकलंकदेव ने५ प्रत्यक्ष के इस लक्षण को आत्मसात् करते हुए उसका एक नया दूसरा भी लक्षण प्रस्तुत किया है, जो दार्शनिकों द्वारा अधिक ग्राह्य और लोकप्रिय हुआ है। वह है विशदता-स्पष्टता। जो ज्ञान विशद अर्थात् अनुमानादि ज्ञानों से अधिक विशेष प्रतिभासी है वह प्रत्यक्ष है। उदाहरणार्थ, अग्नि है ऐसे किसी विश्वस्त व्यक्ति के वचन से उत्पन्न अथवा वहाँ अग्नि है, क्योंकि धुआँ दिख रहा है ऐसे धूमादि साधनों से जनित अग्नि के ज्ञान से यह (सामने) अग्नि है, अग्नि को देखकर हुए अग्निज्ञान में जो विशेष प्रतिभासरूप वैशिष्ट्य अनुभव में आता है उसी का नाम विशदता है। और यह विशदता ही प्रत्यक्ष का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि जहाँ अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है वहाँ स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञानों की भेदक रेखा यह स्पष्टता और अस्पष्टता ही है। उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष का यही लक्षण स्वीकार किया है। विद्यानन्दि ने विशदता का विशेष विवेचन किया है। प्रत्यक्ष के भेदों का भी उन्होंने काफी विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। उन्होंने बतलाया है कि प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-१. इन्द्रियप्रत्यक्ष, २. अनिन्द्रिप्रत्यक्ष और ३. अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रारम्भ में चार प्रकार का है-१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा। ये चारों पांचों इन्द्रियों और बहु आदि बारह अर्थभेदों के निमित्त से होते हैं। अतः ४४५४१२=२४० भेद अर्थावग्रह की अपेक्षा से हैं तथा व्यंजनावग्रह चक्षु
और मन से नहीं होता। किन्तु स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों से बहु आदि बारह अर्थभेदों में होता है, इसलिए उसके १४४४१२=४८ भेद निष्पन्न होते हैं। इस तरह इन्द्रियप्रत्यक्ष के २४०+४८ =२८८ भेद हैं ।
१. विशेष के लिए देखें, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ७७-७८, संस्करण पूर्वोक्त । २. प्र०प० पृ० ५८ ।
स० सि० १. १२, भा० ज्ञानपीठ सं० । वही।
प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः -लघी० १. ३, अकलंक ग्र० । ६. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेष प्रतिभासनम् ।
तद्वै शद्य मतं बुद्ध रवंशद्यमतः परम् ।। -लघीय० १. ४, अकलंक ग्र० । तत् त्रिविधम् ----इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रियप्रत्यक्षविकल्पात् । तत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष सांव्यावहारिकं देशतो विशदत्वात् । तद्वदनिन्द्रियप्रत्यक्षम्, तस्यान्तर्मुखाकारस्य कथंचिव शद्यसिद्धः। अतीन्द्रियप्रत्यक्षं तु द्विविधं विकल प्रत्यक्ष सकलप्रत्यक्षं चेति। .... -प्र०प० पृ० ३८, संस्करण पूर्वोक्त ।
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