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जैन प्रमाण-शास्त्र : एक अनुचिन्तन
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मतिज्ञान के पाँच भेदों में से प्रथम भेद मति को निकालकर और उनमें श्रुत को सम्मिलित कर उन्होंने परोक्ष के पांच भेद गिनाये हैं।' मति (अनुभव) को उन्होंने संव्यवहार प्रत्यक्ष बतलाया है। इसी से उसे परोक्ष के भेदों में ग्रहण नहीं किया और श्रुत को अविशद् होने से परोक्ष के अन्तर्गत ले लिया है। इस विवेचन या परिवर्तन में सैद्धान्तिक अथवा दार्शनिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। परोक्ष के उन्होंने जो पाँच भेद बताये हैं वे ये हैं-१. स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), ३. चिन्ता (तर्क), ४. अभिनिबोध (अनुमान) और ५. श्रुत (आगम)।
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं । जैसे---वह इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव तथा स्मरणपूर्वक जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह संज्ञा है। इसे प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान भी कहते हैं। यथायह वही है, अथवा यह उसी के समान है अथवा यह उससे विलक्षण है आदि। इसके एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य आदि अनेक भेद हैं। अन्वय (विधि) और व्यतिरेक (निषेध) पूर्वक होने वाला व्याप्ति (साध्य और साधन रूप से अभिमत दो पदार्थों के अविनाभाव सम्बन्ध) का ज्ञान चिन्ता (तर्क) है। ऊह अथवा ऊहा भी इसे कहते हैं। इसका उदाहरण है-इसके होने पर ही यह होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता है। जैसे-अग्नि के होने पर ही धुआँ होता है और अग्नि के अभाव में धुआँ नहीं होता । इस प्रकार का ऊहापोहात्मक ज्ञान चिन्ता या तर्क कहा गया है। निश्चित साध्याविनाभावी साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है वह अभिनिबोध अर्थात् अनुमान है। जैसे-धूम से अग्नि का ज्ञान अनुमान है। शब्द, संकेत आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह श्रुत है। इसे आगम, प्रवचन आदि भी कहते हैं। जैसे-मेरु आदि शब्दों को सुनकर सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है। ये सभी ज्ञान परापेक्ष हैं। स्मरण में अनुभव, प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंग दर्शन, व्याप्तिस्मरण और श्रुत में शब्द एवं संकेतादि अपेक्षित हैं, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। अतएव ये और इस प्रकार के उपमान, अर्थापत्ति आदि परापेक्ष अविशद् ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।
अकलंक ने इनके विवेचन में जो दृष्टि अपनायी वही दृष्टि और सरणि विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि आदि ताकिकों ने अनुसत की है। विद्यानन्दि ने प्रमाण-परीक्षा में और माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में स्मृति आदि पांचों परोक्ष प्रमाणों का विशदता के साथ निरूपण किया है। इन दोनों मनीषियों की विशेषता यह है कि उन्होंने प्रत्येक की सहेतुक सिद्धि करके उनका परोक्ष में सप्रमाण समावेश किया है। विद्यानन्दि ने५ इनकी प्रमाणता में सबसे सबल हेतु यह दिया है कि वे अविसंवादी हैं-अपने ज्ञात अर्थ में किसी प्रकार विसंवाद नहीं करते हैं। और जिस स्मृति आदि में विसंवाद होता है वह प्रमाण नहीं है। उसे स्मृत्याभास, प्रत्यभिज्ञाभास, तर्काभास, अनुमानाभास और आगमाभास (श्रुताभास) समझना चाहिये । उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यह प्रतिपत्ता का कर्तव्य है कि वह सावधानी और युक्ति आदि पूर्वक निर्णय करे कि अमुक स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि निर्बाध होने से प्रमाण है और अमुक सबाध होने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) है। इस प्रकार पाँचों ज्ञानों के प्रामाण्याप्रामाण्य का निर्णय किया जाना चाहिए। ये पाँचों ज्ञान यतः अविशद् हैं, अतः परोक्ष हैं यह भी विद्यानन्दि ने स्पष्टता के साथ प्रतिपादन किया है।
जैन तार्किक विद्यानन्दि की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने अनुमान और उसके परिकर का
१. लघीय० स्वोपज्ञवृ० २-१०.
इदमल्पं महद् दूरमासन्नं प्रांशु नेति वा । व्यपेक्षात: समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ॥१-२१॥ लघीय०
प्र०प० पृ० ४१ से ६५ । ४. परीक्षामुख ३, १ से ३, १०१ । ५. स्मृति प्रमाणम्, अविसंवादकत्वात, प्रत्यक्षवत यत्र तु विसंवाद: सा स्मृत्याभासा, प्रत्यक्षाभासात्-प्र० प०
पृ० ४२११ । ६. प्र०प० पृ० ४५ से ५८ तक।
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