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लापारनपु०पवता आमनन्दनन्थ
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गमक होता है, उसके अभाव में नहीं । अतएव इसका दूसरा नाम 'अविनाभाव' भी है । देखना है कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग कब से आरम्भ हुआ है।
अक्षपाद के न्यायसूत्र और वात्स्यायन के न्यायभाष्य में न व्याप्ति शब्द उपलब्ध होता है और न अविनाभाव । न्यायभाष्य 7 में मात्र इतना मिलता है कि लिंग और लिंगी में सम्बन्ध होता है अथवा वे सम्बद्ध होते हैं । पर वह सम्बन्ध व्याप्ति अथवा अविनाभाव है, इसका वहां कोई निर्देश नहीं है । गौतम के हेतु लक्षण-प्रदर्शक सूत्रों से भी केवल यही ज्ञात होता है कि हेतु वह है जो उदाहरण के साधर्म्य अथवा वैधयं से साध्य का साधन करे । तात्पर्य यह कि हेतु को पक्ष में रहने के अतिरिक्त सपक्ष में विद्यमान और विपक्ष से व्यावृत्त होना चाहिए, इतना ही अर्थ हेतुलक्षण सूत्रों में ध्वनित होता है, हेतु को व्याप्त (व्यातिविशिष्ट या अविनाभावी) भी होना चाहिए, इसका उनसे कोई संकेत नहीं मिलता है। उद्योतकर के न्यायवार्तिक में अविनाभाव और व्याप्ति दोनों शब्द प्राप्त हैं। पर उद्योतकर ने उन्हें परमत के रूप में प्रस्तुत किया है तथा उनकी आलोचना भी की है। इससे प्रतीत होता है कि न्यायवातिककार को भी न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकार की तरह अविनाभाव और व्याप्ति दोनों अमान्य हैं । उल्लेख्य है कि उद्योतकर अविनाभाव और व्याप्ति की आलोचना (न्यायवा० १/१/५, पृष्ठ ५४, ५५) कर तो गये । पर स्वकीय सिद्धान्त की व्यवस्था में उनका उपयोग उन्होंने असन्दिग्ध रूप में किया है। 70 उनके परवर्ती वाचस्पति मिश्र ने अविनाभाव को हेत के पांच रूपों में समाप्त कह कर उसके द्वारा ही समस्त हेतु रूपों का संग्रह किया है। किन्तु उन्होंने भी अपने कचन को परम्परा-विरोधी समझ कर अविनामाव का परित्याग कर दिया है और उद्योतकर के अभिप्रायानुसार पक्षधर्मत्वादि पांच हेतुरूपों को ही महत्व दिया है, अविनाभाव को नहीं । जयन्त भट्ट ने अविनाभाव को स्वीकार करते हुए भी उसे पक्षधर्मत्वादि पांच रूपों में समाप्त बतलाया है।
इस प्रकार वाचस्पति मिश्र और जयन्त भट्ट के द्वारा जब स्पष्टतया अविनाभाव और व्याप्ति का प्रवेश न्यायपरम्परा में हो गया तो उत्तरवर्ती न्यायग्रन्थकारों ने उन्हें अपना लिया और उनकी व्याख्याएँ आरम्भ कर दीं। यही कारण है कि बौद्ध ताकिकों द्वारा मुख्यतया प्रयुक्त अनन्तरीयक (या नान्तरीयक) तथा प्रतिबन्ध और जैनतर्कग्रन्थकारों द्वारा प्रधानतया प्रयोग में आने वाले अविनाभाव एवं व्याप्ति जैसे शब्द उद्योतकर के बाद न्यायदर्शन में समाविष्ट हो गये एवं उन्हें एक-दूसरे का पर्याय माना जाने लगा। जयन्त भट्ट ने अविनाभाव का स्पष्टीकरण करने के लिए व्याप्ति, नियम, प्रतिबन्ध और साध्याविनाभावित्व को उसी का पर्याय बतलाया है। वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि हेतु का कोई भी सम्बन्ध हो उसे स्वाभाविक एवं नियत होना चाहिए और स्वाभाविक का अर्थ वे उपाधिरहित बतलाते हैं। इस प्रकार का हेतु ही गमक होता है और दूसरा सम्बन्धी (साध्य) गम्य । तात्पर्य यह कि उनका अविनाभाव या व्याप्ति शब्दों पर जोर नहीं है पर उदयन', केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट', विश्वनाथ पंचानन 8 प्रभृति नैयायिकों ने व्याप्ति शब्द को अपनाकर उसी का विशेष व्याख्यान किया है तथा पक्षधर्मता के साथ उसे अनुमान का प्रमुख अंग बतलाया है। गंगेश और उनके अनुवर्ती वर्तमान उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, वासुदेव मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ तर्कवागीश जगदीश तर्कालंकार, गदाधर भट्टाचार्य आदि नव्य नैयायिकों ने तो व्याप्ति पर सर्वाधिक चिन्तन और निबन्धन भी किया है। गंगेश ने तत्वचिन्तामणि में अनुमानलक्षण8° प्रस्तुत करके उसके व्याप्ति81 और पदाधर्मता दोनों अंगों का नव्यपद्धति से विवेचन किया है।
वैशेषिक दर्शन में प्रशस्तपाद के भाष्य83 में अविनाभाव का प्रयोग अवश्य उपलब्ध होता है और उन्होंने अविनाभूत लिंग को लिंगी का गमक बतलाया है। पर वह उन्हें विलक्षणरूप ही अभिप्रेत है।84 यही कारण है कि टिप्पणकार ने अविनाभाव का अर्थ 'व्याप्ति' एवं 'अव्यभिचरित सम्बन्ध दे करके भी शंकर मिश्र द्वारा किये गये अविनाभाव के खण्डन से सहमति प्रकट की है और 'वस्तुतस्त्वनोपाधिकसम्बन्ध एवं व्याप्ति:88 इस उदयनोक्त87 व्याप्ति लक्षण को ही मान्य किया है। इससे प्रतीत होता है कि अविनाभाव की मान्यता वैशेषिक दर्शन की भी स्वोपज्ञ एवं मौलिक नहीं है।
जैन-न्याय में अनुमान-विमर्श : डॉ. दरबारीलाल कोठिया| ५६