________________
साध्वारत्न पुष्पवता आभिनन्दन ग्रन्थ
इस विवेचन से ज्ञात होता है कि तार्किकों ने उस प्राचीन काल में कणाद की पंचविध अनुमान परम्परा को नहीं अपनाया, किन्तु पूर्ववदादि विविध अनुमान की परम्परा को स्वीकार किया है। इस परम्परा का मूल क्या है ? न्यायसूत्र है या अनुयोगद्वारसूत्र आदि में से कोई एक ? इस सम्बन्ध में निर्णयपूर्वक कहना कठिन है पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उस समय पूर्वागत त्रिविध अनुमान की कोई सामान्य परम्परा रही है जो अनुमानचर्चा में वर्तमान थी और जिसके स्वीकारने में किसी को सम्भवतः विवाद नहीं था।
1
6
पर उत्तरकाल में यह त्रिवि अनुमान परम्परा भी सर्वमान्य नहीं रह सकी प्रशस्तपाद ने दो तरह से अनुमान भेव बतलाये हैं- १. दृष्ट और २. सामान्यतोदृष्ट अथवा १. स्वनिश्चितार्थानुमान और २ परार्थानुमान मीमांसादर्शन में शबर 11 ने प्रशस्तपाद के प्रथमोक्त अनुमान द्वं विध्य को ही कुछ परिवर्तन के साथ स्वीकार किया है - १. प्रत्यक्षतो दृष्ट सम्बन्ध और २. सामान्यतोदृष्ट सम्बन्ध | सांख्यदर्शन में वाचस्पति 17 के अनुसार वीत और कवीत ये दो भेद भी मान लिये है। बीतानुमान को उन्होंने पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट द्विविधरूप और अवीतानुमान को शेषवतुरूप मानकर उक्त अनुमानत्रैविध्य के साथ समन्वय भी किया है। ध्यातव्य है कि सांख्यों की सप्तविध अनुमान मान्यता का भी उल्लेख उद्योतकर 118, वाचस्पति 119 और प्रभाषन्द्र 120 ने किया है। पर वह हमें सांख्यदर्शन के उपलब्ध ग्रन्थों में प्राप्त नहीं हो सकी । प्रभाचन्द्र ने तो प्रत्येक का स्वरूप और उदाहरण देकर उन्हें स्पष्ट भी किया है।
आगे चलकर जो सर्वाधिक अनुमानभेद-परम्परा प्रतिष्ठित हुई वह है प्रशस्तपाद की उक्त १. स्वार्थ और २. परार्थ भेद वाली परम्परा | उद्योतकर 121 ने पूर्ववदादि अनुमानत्रैविध्य की तरह केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये हनुमान भेदों का भी प्रदर्शन किया है । किन्तु उन्होंने और उनके उत्तरवर्ती वाचस्पति तक के ोिं ने प्रशस्तपादनिर्दिष्ट उक्त स्वार्थपरार्थ के अनुमान- विश्व को अंगीकार नहीं किया। पर जयन्त भटू 11 और उनके पश्चात्वर्ती केशव मिश्र आदि ने उक्त अनुमान विध्य को मान लिया है। बौद्ध दर्शन में नाग से पूर्व उक्त विष्य की परम्परा नहीं देखी जाती है परन्तु दिना ने उसका 1124 प्रतिपादन किया है । उनके पश्चात् तो धर्मकीर्ति 125 आदि ने इसी का निरूपण एवं विशेष व्याख्यान किया है । अनुमानविय को अंगीकार किया है और अनुयोगद्वारादिप्रति
जैन तार्किकों 120 ने इसी स्वार्थ पादित अनुमानविय को स्थान नहीं दिया, प्रत्युत उसकी समीक्षा की है
इस प्रकार अनुमान-भेदों के विषय में भारतीय तार्किकों की विभिन्न मान्यतायें तर्कग्रन्थों में उपलब्ध होती हैं। तथ्य यह कि कणाद जहाँ साधनभेद से अनुमानभेद का निरूपण करते हैं वहां न्यायसूत्र आदि में विषयभेद तथा प्रशस्तपादभाष्य आदि में प्रतिपत्ताभेद से अनुमान-भेद का प्रतिपादन ज्ञात होता है साधन अनेक हो सकते हैं, जैसा कि प्रशस्तपाद ने कहा है, अतः अनुमान के भेदों की संख्या पांच से अधिक भी हो सकती है। न्यायसूचकार आदि की दृष्टि में चूंकि अनुमेय या तो कार्य होगा, या कारण या अकार्यकारण। अतः अनुमेव के विध्य से अनुमान त्रिविध है प्रशस्तपाद द्विविध प्रतिपताओं की द्विविध प्रतिपत्तियों की दृष्टि से अनुमान के स्वायं और परार्थ दो ही भेद मानते हैं, जो बुद्धि को लगता है, क्योंकि अनुमान एक प्रकार की प्रतिपत्ति है और वह स्व तथा पर दो के द्वारा की जी जाती है। सम्भवत: इसी से उत्तरकाल मे अनुमान का स्वायं परार्थ विषय सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोक
प्रिय हुआ।
अनुमानावयव
अनुमान के तीन उपादान है 129, जिनसे वह निष्पन्न होता है—१. साधन, २. साध्य और ३. धर्मी । १. पक्ष और २. हेतु ये दो उसके अंग हैं, क्योंकि साध्यधर्म विशिष्ट धर्मों को पक्ष कहा गया है, अतः पक्ष को कहने से धर्म और धर्मी दोनों का ग्रहण हो जाता है । साधन गमक रूप से उपादान है, साध्य गम्यरूप से और
130
अथवा
जैन-न्याय में अनुमान विमर्श डॉ० दरबारीलाल कोठिया | ६१
♡
www.a