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जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता
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जैन धर्म को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ माना जाता है, वे दो हैं- एक वैयक्तिक मुक्ति को | प्रमुखता और दूसरा निवृत्ति प्रधान आचार मार्ग का प्रस्तुतीकरण। यह सत्य है कि जैन-धर्म निवृत्तिपरक है और वैयक्तिक मोक्ष को जीवन का परम साध्य स्वीकार करता है, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि उसके नीतिदर्शन की कोई सामाजिक सार्थकता नहीं है, क्या एक भ्रांति नहीं होगी? यद्यपि यह सही है कि वह वैयक्तिक चरित्रनिर्माण पर बल देता है किन्तु | वैयक्तिक चरित्र के निर्माण हेतु उसने जिस मार्ग का प्रस्तुतीकरण किया है, वह सामाजिक मूल्यों से विहीन नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इन्हीं मूल प्रश्नों के सन्दर्भ में यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैन नीतिदर्शन की सामाजिक उपादेयता क्या है?
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व्यक्ति के नैतिक विकास के परिणामस्वरूप जो सामाजिक जीवन फलित होगा, वह मुव्यवस्था और शान्ति से युक्त होगा, उसमें संघर्ष और तनाव का अभाव होगा। जब तक व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति नहीं आती, तब तक सामाजिक जीवन की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। अपने व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिये राग-द्वेष के मनोविकारों और असत्कर्मों से निवृत्ति आवश्यक है। जब व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति आयेगी, तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अंतःकरण विशुद्ध होगा और तब जो भी सामाजिक प्रवृत्ति फलित होगी वह लोकहितार्थ और लोकमंगल के लिये होगी। जब तक व्यक्तिगत जीवन में संयम और निवृत्ति के तत्त्व नहीं होंगे, तब तक सच्चा सामाजिक जीवन फलित ही नहीं होगा। जो व्यक्ति अपने स्वार्थो और अपनी वासनाओं का नियंत्रण नहीं कर सकता, वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। उपाध्याय अमरमुनि के शब्दों में जैनदर्शन की निवृत्ति का मर्म यही है कि व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थी एवं द्वन्द्वों से दूर रहे, यह जैन दर्शन की आचार संहिता का पहला पाठ है अपने व्यक्तिगत जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर ही समाज कल्याण के लिये प्रवृत्त होना जैनदर्शन का पहला नीति-धर्म है।' सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत नैतिकता परस्पर विरोधी नहीं हैं। बिना व्यक्तिगत नैतिकता को उपलब्ध किये सामाजिक नैतिकता की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिये घातक ही होगा। अतः हम कह सकते हैं कि जैनदर्शन में निवृत्ति का जो स्वर मुखर हुआ है, वह समाजविरोधी नहीं है, वह सच्चे अर्थों में सामाजिक जीवन का साधक है । चरित्रवान् व्यक्ति और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति ही किसी आदर्श समाज का निर्माण कर सकते हैं वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? समाज जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। व्यक्ति अपने और पराये के भाव से तथा अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थी से ऊपर उठे, चूँकि जैन नीति- दर्शन हमें इन्हीं तत्त्वों की शिक्षा देता है, अतः वह सच्चे अर्थों में सामाजिक है, असामाजिक नहीं है। जैन दर्शन का निवृत्तिपरक होना सामाजिक विमुखता का सूचक नहीं है। अशुभ से निवृत्ति ही शुभ में प्रवृत्ति का साधन बन सकती है। महावीर की नैतिक शिक्षा का सार यही है। वे 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहते हैं-एक ओर से निवृत्त होओ और एक ओर प्रवृत्त होओ। असंयम से निवृत्त होओ, संयम में प्रवृत्त होओ।' वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक प्रवृत्ति का आधार है संयम ही सामाजिक जीवन का आधार है।
क्या निवृत्ति सामाजिक विमुखता की सूचक है?
सर्वप्रथम यह माना जाता है कि जो आचार दर्शन निवृत्ति परक हैं, वे व्यक्ति- परक हैं। जो आचार दर्शन प्रवृत्ति-परक हैं, वे समाजपरक हैं। पं. सुखलालजी भी लिखते हैं कि प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था हो, उसे इस तरह नियम और कर्तव्यबद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा के अनुरूप सुख लाभ करे प्रवर्तक धर्म समाजगामी है, इसका मतलब यह है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर सामाजिक कर्तव्यों का, जो ऐहिक जीवन से संबंध रखते हैं, पालन करे। निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है। निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता है उसके अनुसार व्यक्ति के लिये मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह भी हो आत्मसाक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे। 'यद्यपि जैन धर्म निवर्तक-परम्परा का हामी है, लेकिन उसमें सामाजिक भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। वह यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में भी होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है। बारह वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे सामाजिक जीवन में लौट आए और पुन: चतुर्विध संघ की स्थापना की एवं उसको जीवन भर मार्गदर्शन देते रहे । वस्तुतः उनकी निवृत्ति उनके द्वारा किये जानेवाले सामाजिक-कल्याण में साधक ही बनी है, बाधक नहीं वैयक्तिक जीवन के नैतिक स्तर का विकास लोकजीवन या सामुदायिक जीवन की प्राथमिकता है महावीर सामाजिक सुधार और सामाजिक सेवा की आवश्यकता तो मानते थे किन्तु वे व्यक्ति-सुधार से समाज सुधार की दिशा में बढ़ना चाहते थे। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, वह सुधरेगा तो ही समाज सुधरेगा ।
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