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________________ शरीरके विषयमें कुछ उदार दृष्टिसे विचार कर अपना जीवन उन्नत करना चाहिये । तपके उपमान आध्यात्मिक जीवनके विकासके लिये सामान्य जीवनमें तपका बड़ा महत्त्व है। तप एक अग्नि है जो हमारे बाहरी और भीतरी तंत्रको सोनेके समान शुद्ध बनाती है। उपवास आदि बाह्य तप हमारे शरीर तन्त्रको स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाये रखते हैं। आलोचना, प्रतिक्रमण आदि हमारे अंतरंगमें ऐसे गुणोंका विकास करते हैं जो स्वस्थ और विकासशील समाजकी सुखमयताको बढ़ाते हैं। इन दोनों ही प्रकारकी प्रक्रियाओंसे जीवन में एक विशेष प्रकारकी स्फति, सजीवता एवं आनन्दकी अनुभूति होती है । ऐसे आनन्दकारक तत्त्वको रत्न कहा जाना उपयुक्त ही है। तपस्वी जीवन व्यक्ति-शोधक तो है ही, यह हमारे सामाजिक वातावरणको भी शुद्धि करता है । इसे सूपा और धौकन्नी भी बताया गया है । इसका अर्थ यही है कि जैसे ये उपकरण अशुद्ध वस्तुओंको शुद्ध करनेमें काम आती हैं ( सूपासे धान्यसे तुष दूर किया जाता है, धौकनीसे अशुद्ध लोहेसे किट्टिम निकालकर शुद्ध लोहा प्राप्त किया जाता है ), उसी प्रकार तप भी एक साधन है जो हमारी अशुद्ध प्रवृत्तियोंको नियंत्रित करता है और हमें शुभ प्रवृत्तियोंको ओर प्रेरित करता है । यदि हम मानवकी विभिन्न प्रवृत्तियोंको कर्मसिद्धान्तके आधार पर कर्म कण माने, तो हमारी तपस्वी वृत्ति हमारे अरुचिकर कर्म कणोंको धोंकनीके समान जला सकती है अथवा सूपाके समान उड़ा सकती है। इस आधार पर तपके चारों ही उपमान उसके गुणोंकी व्याख्या करते हैं। इसके विपरीत, संसार और शरीरके उपमान हमें दोनोंसे ही घृणा करने की प्रेरणा देते हैं। वस्तुतः यदि संसार और शरीर न रहे, तो तपका अस्तित्त्व ही कहाँ होगा? इस प्रकार विभिन्न उपमेयोंके लिये प्रयुक्त उपमानोंको समीक्षित करने पर यह ज्ञात होता है कि सांसारिक क्षेत्रसे सम्बन्धित सभी उपमेयोंके उपमानोंमें एक विशिष्ट प्रकारको वृत्तिका आभास होता है । इसलिये समाजने इनको स्वीकार नहीं कर पाया है । कबीरने इस स्थितिको देखकर ही कहा था कि मेरी बात कोई नहीं सुनता । वास्तवमें, बहुतेरे उपमान तो बीसवों सदीके विवेकी समाजमें अत्यन्त ही उपेक्षणीय लगते है। स्त्रीको नागिन, राग और स्नेहको पिशाच, युवावस्थाको गहन ताल, गृहस्थको तपे हए लोहेका गोला, अभव्यको उल्लू इत्यादि कहना सम्बन्धित उपमेयोंकी उपयोगिताके प्रति उपेक्षावृत्ति जगाना है। यह समाजके विकासके लिये हितकर वृत्ति नहीं है। इसके विपरीत, धर्म और मुक्तिको वल्लभा, सम्यक्त्वको रत्न, वैराग्य आदिको सम्पदा, रत्नत्रयको बोधिवृक्ष, वैयावृत्यको सरोवर, ज्ञानको सूर्य आदिके उपमान अनेक प्रकारसे उपयुक्त हैं पर चूँकि सामान्य जन तो दृश्य जगतसे ही प्रभावित रहता है, अतः उसने उपमेयोंके बदले उपमानोंकी ही आराधना प्रारम्भ कर दी है । वह जीवन मूल्योंको प्रस्फुटित करने वाले उपमेयोंको भूल ही गया। यह वर्तमान समाज के लिये कितनी विडम्बना स्थिति है कि जहाँ हमें रहना है, उसे उपेक्षणीय बना लें और जहां हमें रहनेकी कल्पनात्मक लालसा जगाई जा रही है, उसे सब कुछ मान लें। इस स्थितिसे ही मानव सदासे द्विविधामें रहा है । बीसवीं सदीके धर्मगुरुओं तथा तत्त्वज्ञानियोंसे यह आशा की जाती है कि वे इस द्विविधाजनक स्थितिमें समुचित मार्ग दर्शन करेंगे । सारणी १. धार्मिक उपमेय और उपमान उपमेय उपमान १. धर्म वृक्ष, महल, लक्ष्मी , चक्र - २११ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210790
Book TitleJain Dharmik Sahitya me Upman aur Upamey
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitabhkumar
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size696 KB
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