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(घ) पृथ्वी में क्षेत्रीय परिवर्तन के समर्थक जंनशास्त्र
होते हैं ।
यहां यह शंका उपस्थित की जा सकती है कि जैनागमों में तो पृथ्वी शास्वत बताई गई है। इस स्थिति में उसमें महान् परिवर्तन कैसे सम्भव हैं ? जौन आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में तथा आचार्य अकलंक ने तत्वार्थ राजवार्तिक में स्पष्ट लिखा भी है कि भरतादिक क्षेत्र में भौतिक व क्षेत्रीय परिवर्तन सम्भव नहीं हैं ।
न शास्त्रों से अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिन से यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी के बाह्य स्वरूप में भी परिवर्तन
क्या इसका कोई ऐसा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध है जिससे यह सिद्ध होता हो कि भरतादिक्षेत्र में भौतिक या क्षेत्रीय परिवर्तन हो सकता है ?
उक्त शंका का समाधान इस प्रकार है:
(१) पृथ्वी का मूल आकार बाहरी लम्बाई-चौड़ाई, परिधि आदि पूर्णतः शाश्वत है, यानी उसका विनाश सम्भव नहीं है । बाह्य परिमाण में उच्चावचता अवश्य सम्भव है । इस परिवर्तन के बावजूद उसका मूल सदा अपरिवर्तित रहता है ।
(२) अपि काल में भरत व ऐरावत क्षेत्र के अन्दर, जिस प्रकार क्षेत्रस्थ मनुष्यों की ऊंचाई, आयु, सुख, विभूति आदि में क्रमशः ह्रास होता है, उसी प्रकार, भरत ऐरावत क्षेत्रों में भी (क्षेत्रीय) परिवर्तन होते हैं ।
(क) तत्वार्थ सूत्र के ( दिगम्बरपरम्परा-सम्मत पाठ में उपलब्ध) ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः' (० सू० ३ / २८) सूत्र से स्पष्ट संकेत होता है कि भरत व ऐरावत क्षेत्र की भूमियां अवस्थित ( एक जैसी ) नहीं रहती ।
आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि तत्त्वार्थसूत्र ( भरत रावतयोवृद्धि हासौ षट्समयाभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम् - ३ / २७ दिगम्बर- पाठ) में संकेतित परिवर्तन भरतादिक्षेत्र से सम्बन्धित समझने चाहिएं। मनुष्यादिक की आयु आदि में परिवर्तन तो गाँग ही हैं।"
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(ख) आचार्य विद्यानन्द ने
वार्तिक ( तस्वार्थ सूत्र- ४ / १३ पर) में कहा है कि यह पृथ्वी सर्वत्र दर्पणयत् समतल (चौरस - सपाट) नहीं है, क्योंकि जगह-जगह पृथ्वी की उच्चावचता की प्रतीति प्रत्यक्ष हो रही है । "
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इमाणं भंते रयणप्पभा पुढवी कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! न कयाइ ण आसि ण कयाइ णत्थि ण कयाइ ण भविस्सइ भुविच भवइ य भविस्सइ य धुवा णियया सासया अक्खया अब्वया अवट्टिया णिच्चा ( जीवाजीवा. सू. ३।१।७८)
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२. न तयोः क्षेत्रयोर्वृद्धिह्रासौ स्तः असम्भवात् । तत्स्थानां मनुष्याणां वृद्धि - हासौ भवतः (त सू. - ३२७ पर सर्वार्थसिद्धि टीका ) । हासोरसंगच्छमानत्वात् (त.सू. ३।२७ पर श्रुतसागरीय वृत्ति) ।
३. राजवार्तिक (त. सू. ३1२७ )
४. तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरा विभिन् विहासी प्रतिपादितो न भूमेः अपरपुद्गलैरिति मुख्यस्य घटनात्, अन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे प्रयोजनाभावात् । तेन भरत रावत यो क्षेत्रयो] द्वि-हासी मुख्यतः प्रतिपत्तव्यी गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथावचनं सफलतास्तु ततश्वानुल्लंघिता स्यात् (त.सू. २०१३ परलोक खण्ड ५ पू. ५७२) ।
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५. न वयं दर्पणसमत तामिव भूमि भाषामहे प्रतीतिविरोधात् । तस्याः कालादिवादुपचयापचयसिद्धेनिम्नोन्नतकारसभावात् (त. सू. ४ / १६ पर श्लोकवार्तिक, खण्ड - ५ पृ. ५६३ ) ।
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