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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
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हैं और उनका उद्देश्य सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि है। लोक-मंगल और लोक-कल्याण यह श्रमण परम्परा का और विशेष रूप से जैन परम्परा का मूलभूत लक्ष्य रहा है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्मसंघ को सर्वोच्च तीर्थ कहा है, वे लिखते हैं कि “सर्वापदा: दामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव अर्थात् हे प्रभो आपका यह धर्मतीर्थ सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण करने वाला है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा ने निवृत्तिमार्ग को प्रधानता देकर भी उसे संघीय साधना के रूप में लोक-कल्याण का आदर्श देकर सामाजिक बनाया है। जैन आगमों में कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और गणधर्म के जो उल्लेख हैं, वे सामाजिक सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं । पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार सुमधुर और समायोजनपूर्ण बन सकें और सामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें किस प्रकार से दूर किया जा सके, यही जैनदर्शन की सामाजिक दृष्टि का मूलभूत आधार है। जैनदर्शन ने आचारशुद्धि पर बल देकर व्यक्ति-सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया है।
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से मिले हैं। यदि मनुष्य से उसके सामाजिक अवदानों को पृथक् कर दिया जाय तो उसका कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा। दूसरी ओर, यह भी सही है कि बिना मनुष्य के मनुष्यत्व का कोई अर्थ नहीं है। मनुष्य से पृथक् मनुष्यत्व नहीं होता, ठीक यही बात समाज के सन्दर्भ में भी है। समाज का अस्तित्व व्यक्तियों पर निर्भर है। व्यक्तियों के अभाव में समाज सम्भव ही नहीं है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि व्यक्ति जो कुछ है वह समाज के कारण है। इस प्रकार जैनदर्शन में न तो निरपेक्ष रूप से व्यक्ति को महत्व दिया गया है और न ही समाज को जैनधर्म की अनेकान्तिक दृष्टि का निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति समाज सापेक्ष है और समाज व्यक्ति सापेक्ष । जो लोग व्यक्ति निरपेक्ष समाज अथवा समाज निरपेक्ष व्यक्ति की बात करते हैं वे दोनों ही यथार्थ से अपना मुख मोड़ लेते हैं। सामान्य रूप से तो सभी भारतीय दर्शन और विशेष रूप से जैन दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति और समाज में से किसी एक को ही सब कुछ मान लेना एक भ्रान्त धारणा है। यह ठीक है कि सामाजिक कल्याण के लिये व्यक्ति के हितों का बलिदान किया जा सकता है । किन्तु दूसरी ओर यह भी सही है कि सामूहिक हित भी वैयक्तिक हित से भिन्न नहीं हैं। सबके हित में व्यक्ति का हित तो निहित ही है। व्यक्ति में समाज और समाज में व्यक्ति अनुस्यूत है। जैन परम्परा में संघ हित को सर्वोपरिता दी गई है। इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक कथा है कि भद्रबाहु ने अपनी वैयक्तिक ध्यान-साधना के लिये संघ के कुछ साधुओं को पूर्व-साहित्य का अध्ययन करवाने की माँग को ठुकरा दिया। इस पर संघ ने उनसे पूछा कि वैयक्तिक साधना और संघहित में क्या प्रधान है? यदि आप संघहित की उपेक्षा करते हैं तो आपको संघ में रहने का अधिकार भी नहीं है। आपको बहिष्कृत किया जाता है। अन्त में भद्रबाहु को संघहित को प्राथमिकता देनी पड़ी। यद्यपि समाज के हित के नाम पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को समाप्त नहीं किया जा सकता। जैन परम्परा में कहा गया है कि आत्महित करना चाहिये और यदि शक्य हो तो लोकहित भी करना चाहिये और जहाँ आत्महित और लोकहित में नैतिक विरोध का प्रश्न हो वहाँ आत्महित को ही चुनना पड़ेगा । यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिये कि यहाँ आत्महित का तात्पर्य वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति नहीं अपितु आध्यात्मिक मूल्यों का संरक्षण है । वस्तुतः वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों ही मानवीय अस्तित्व के अनिवार्य अंग है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले ने कहा था मनुष्य मनुष्य नहीं है यदि वह सामाजिक नहीं और यदि वह मात्र सामाजिक है तो पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों का अतिक्रमण करने में है । किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि जैनदर्शन अपनी अनेकान्तिक दृष्टि के कारण मनुष्य को एक ही साथ वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही मानता है।
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व्यक्ति और समाज जैन दृष्टिकोण
सामाजिक दर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों के सन्दर्भ में जैनों का दृष्टिकोण समन्वयवादी और उदार रहा है। आगे हम क्रमशः उन सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में जैन दृष्टिकोण पर विचार करेंगे ।
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समाजदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति और समाज में किसे प्रमुख माना जाय, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। व्यक्तिवादी दार्शनिक यह मानते हैं कि व्यक्ति ही प्रमुख है, समाज व्यक्ति के लिये बनाया गया है। व्यक्ति साध्य है, समाज साधन है, अतः समाज को वैयक्तिक हितों पर आघात करने या उन्हें सीमित करने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरी ओर, समाजवादी दार्शनिक समाज को ही सर्वस्व मानते हैं उनके अनुसार सामाजिक कल्याण ही प्रमुख है, समाज से पृथक् व्यक्ति की सत्ता कुछ है ही नहीं । वह जो कुछ भी है समाज द्वारा निर्मित है। अतः सामाजिक कल्याण के लिये वैयक्तिक हितों का बलिदान किया जा सकता है । इन दोनों प्रकार के ऐकान्तिक दृष्टिकोणों को जैनदर्शन अस्वीकार करता है। वह यह मानता है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से निरपेक्ष होकर अपना अस्तित्व ही खो देते हैं। उसके अनुसार दार्शनिक दृष्टि से व्यक्तिरहित सामान्य (समाज) और सामान्यरहित व्यक्ति दोनों ही अयथार्थ हैं । वे सामान्य ( universal) और विशेष (individual) न्याय-वैशेषिकों के समान स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानते हैं। मनुष्यत्व नामक सामान्य गुण से रहित कोई मनुष्य नहीं हो सकता और बिना मनुष्य (व्यक्ति) के मनुष्यत्व की कोई सत्ता नहीं होती। विशेष रूप से जब हम मनुष्य के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । अतः सामाजिकता के बिना मनुष्य का कोई राग जोड़ता भी है और तोड़ता भी है अस्तित्व नहीं है। मनुष्य को अपने जैविक अस्तित्व से लेकर भाषा, सभ्यता, संस्कृति और जीवन-मूल्य आदि जो कुछ मिले हैं, वे समाज है तो वह दूसरों से जुड़ता है। लेकिन स्मरण रखना चाहिये कि दूसरों
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यह ठीक है कि जब मनुष्य में राग का तत्त्व विकसित होता
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