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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
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मनुष्य वैज्ञानिक पहले है, धार्मिक बाद में । जैनों ने महावीर को दृष्टा माना है। आचारांग का मनीषी बड़ा वैज्ञानिक था, उसने कहा-मैं दृष्ट, श्रुत, सुविचारित और अनुभूत धर्म का उपदेश दे रहा हूं। जिज्ञासा ज्ञान की जननी है। तत्त्व का अध्ययन कुशाग्रबुद्धि से करना चाहिए, अनुभवकर्ती के लिए आदेशों की आवश्यकता नहीं है। उत्तराध्ययन तो स्पष्ट कहता है-'पण्णा सम्पिक्खए धम्मं ।' कुन्दकुन्द ने भी कहा है वे अपने अनुभव के आधार पर तत्त्व कह रहे हैं। यदि इसमें कोई पूर्वापर विरोध हो, तो विद्धानों को उसे दूर कर लेना चाहिए। समंतभद्र ने भी प्रत्यक्ष और अनुमान के अविरोधी एवं अविसंवादी शास्त्रों की ही प्रामाणिकता स्वीकार की है। प्रामाणिक शास्त्र तत्त्व का यथार्थ, अविपरीत एवं असंदिग्ध विवरण देते हैं। इन्हें तो परीक्षाप्रधानी ही माना जाता है। इन्हीं के समय से जैन दर्शन में “परीक्षा" या "मीमांसा" ग्रंथ प्रारम्भ हुए हैं। सिद्धसेन ने भी दोष किया कि दृश्य जगत का अध्ययन तर्कवाद से तथा अभौतिक या नैतिक जगता अध्ययन आगमवाद से करना चाहिए। हरिभद्र सूरि ने भी कहा है-युक्तिमद वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः। आचार्य हेमचन्द्र ने भी "शास्त्रस्य लक्षणं परीक्षा" द्वारा बुद्धिवादी वैज्ञानिकता का उद्घोष किया है। तेरहवीं सदी के आशाधर और उत्तरवर्ती नेमचन्द्र सूरि ने तो श्रावकों तक के लिए प्रज्ञा और बुद्धि के उपयोग के गुण सुझाए है। सम्भवतः इस परीक्षाप्रधानी वृत्ति के प्रवजन के कारण ही जैन-धर्म अब तक संरक्षित एवं प्रभावशील बना रहा है। वैज्ञानिक युग में भविष्य में इसका और भी संवर्धन होगा, ऐसी आशा है।
प्राचीन जैनशास्त्रों में मध्य-युग तक परीक्षा प्रधानी वृत्ति को प्रेरित किया है। इस वृत्ति ने जैन आचार एवं विचारों को पर्याप्त वैज्ञानिकता प्रदान की है। यही कारण है कि इन ग्रथों के अवलोकन से हमें यह ज्ञात होता है कि समय-समय पर इनकी अनेक सैद्धांतिक, निरीक्षणात्मक, नाम निर्देश / क्रम एवं संख्यात्मक मान्यताओं में संवर्धन और परिवर्धन भी हुआ है जो इसके ऐतिहासिक विकास को भी निरूपित करता है। फलतः सभी धार्मिक मान्यताओं की चरम सत्यता अब निर्विवाद नहीं रही है और उन्हे भी विज्ञान के समान प्रवाहशील ज्ञानधारा की कोटि में मानना चाहिए। इस वक्तव्य के समर्थन में कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं :
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