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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ सिद्धि के लिए भी जैन- परम्परा में मंत्र, जप, पूजा आदि प्रारम्भ हो गये थे। उपरोक्त पद्मावतीस्तोत्र के अतिरिक्त भैरवपद्मावतीकल्प में परिशिष्ट के रूप में प्रस्तुत निम्न ज्वालामालिनी मन्त्र स्तोत्र से भी इस कथन की पुष्टि होती है। यह स्तोत्र निम्न है - १३
ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाङ्कशङ्ङ्खगोक्षी रहारधवलगात्राय धातिकर्मनिर्मलोच्छेदनकराय जातिजरामरणविनाशनाय त्रैलोक्यवशङ्कराय सर्वासत्त्वहितङ्कराय सुरासुरेन्द्रमुकुट कोटिघृष्टापादपीठाय संसारकान्तारोन्मूलनाय अचिन्त्यबलपराक्रमाय अप्रतिहतचक्राय त्रैलोक्यनाथाय देवाधिदेवाय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय कुविद्यानिधनाय,
तत्पादपङ्कजाश्रमनिषेविण ! देवि! शासनदेवते! त्रिभुवनसङ्क्षोमिणि! त्रैलोक्याशिवापहारकारिणि ! स्थावरजङ्गमविषमविषसंहारकारिणि ! सर्वाभिचारकर्माभ्यवहारिणि! परविद्याच्छेदिनि ! परमन्त्रप्रणाशिनि! अष्टमहानागकुलोच्चाटनि ! कालदुष्टमृतकोत्थापिनि! सर्वविघ्नविनाशिनी सर्वरोगप्रमोचनि ! ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रचन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रोत्पातमरणभय पीडासम्मर्दिनि ! त्रैलोक्यमहिते! भव्यलोकहितङ्करि । विश्वलोकवशङ्करि! अत्र महाभैरवरुपधारिणी! महाभीमे ! भीमरूपधारिणी! महारौद्र! रौद्ररूपधारिणी! प्रसिद्धसिद्धविद्याधरयक्षराक्षसगरुडगन्धर्वकिन्नरकिं पुरुषदैत्योरगरुद्रेन्द्रपूजिते ! ज्वालामालाकरालितदिगन्तराले! महामहिषवाहने ! खेटककृपाणत्रिशूलहस्ते! शक्तिचक्रपाशशरासनविशिखपविराजमाने! षोडशार्द्धभुजे ! एहि एहि हयूँ ज्वालामालिनि ! ह्रीं क्लीं ब्लूं फट् द्राँ द्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हैं ह्रौं ह्रः ह्रीं देवान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टग्रहान् आकर्षय आकर्षय, नागग्रहान् आकर्षय आकर्षय, यक्षग्रहान् आकर्षय आकर्षय, राक्षसग्रहान् आकर्षय आकर्षय, गान्धर्वप्रान् आकर्षय आकर्षय, गान्धर्युग्रहान् आकर्षय आकर्षय, ब्रह्मग्रहान् आकर्षय आकर्षय, भूतग्रहान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टान् आकर्षय आकर्षय, चोर चिन्ताग्रहान् आकर्षय आकर्षय, कटकट कम्पावय कम्पावय, शीर्ष चालय चालय, बाहुं चालय चालय, गात्रं चालय चालय, पाट्टं चालय चालय, सर्वाङ्गं चालय चालय, लोलय लोलय, धूनय धूनय, कम्पय कम्पय, शीघ्रमवतारं गृह गृह, ग्राहय ग्राहय, अचेलय अचेलय, आवेशय आवेशय इम्यू ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रॉ द्रीं ज्वल ज्वल र र र ररर प्रज्वल, प्रज्वल प्रज्वल प्रज्वल, धगधगधूमान्धकारिणी! ज्वल ज्वल, ज्वलितशिखे! देवग्रहान् दह दह, गन्धर्वग्रहान् दह दह, यक्षग्रहान् दह दह, भूतग्रहान् दह दहं ब्रह्मराक्षसग्रहान् दह दह, व्यन्तरमाहन् दह दह, नागग्रहान् दह दह, सर्वदुष्टमहान् दह दह, शतकोटिदैवतान् दह दह, सहस्रकोटिपिशांचराजान् दह दह, घे घे स्फोटय स्फोटय, मारय मारय, दहनाक्षि ! प्रलय प्रलय, धगधगतमुखे ! ज्वालामालिनी !
ह्रीं ह्रीं ह्रौं ह्रः सर्वग्रहहृदयं दह दह, पच पच, छिन्द छिन्द भिन्धि भिन्धि हः हः हा हा हे हे: हुं फट् फट् घे घे क्ष्ल्यू क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष स्तम्भय स्तम्भय, हा पूर्व बन्धय बन्धय, दक्षिणं बन्धय बन्धय, पश्चिमं बन्धय बन्धय, उत्तरं बन्धय बन्धय, म्यू भ्राँ श्री भूँ भ्रौं भ्रः ताडय ताडय, म्यू प्रां प्री यूँ ब्रौं म्र: नेत्रे यः स्फोटय स्फोटय, दर्शय दर्शय, हाँ प्रीं प्रौं प्रः प्रेषय प्रेषय, म्यूं घ्रां घ्रीं घूँ प्राँ घ्रः जठरं भेदय भेद, झाँझुंझींझों झः मुष्टिबन्धेन बन्धय बन्धय, खर्व्यू खाँ के उसे उसे की টि[ ११५]
जैन साधना एवं आचार.
खीं खूँ खाँ खः ग्रीवां भञ्जय भञ्जय, छम्ल्व्यूँ छ्राँ छ्रीं हूँ छ छ्र अन्तराणि छेदय छेदय, ठुम्ल्यूँ द्रां ठँ ठँ ठूः महाविद्यापाषाणास्त्र : हन हन, ब्ल्क्यूँ ब्राँ ब्रीं ब्रू ब्रॉं ब्रः समुद्रे ! जृम्भय जृम्भय, झीँ झः प्राँ डाँ प्र सर्वडाकिनी: मर्दय मर्दय, सर्वयोगिनी: तर्जय तर्जय, सर्वशत्रून् प्रस प्रस खं खं खं खं खं खं खादय खादय, सर्वदैत्यान् विध्वंसय विध्वंसय सर्वमृत्यून् नाशय नाशय, सर्वोपद्रव महाभय स्तम्भय स्तम्भय, दह २ पंच २ मथ २ ययः २ धम २ धरू २ खरू २ खङ्गरावणसुविधा धातय २ पातय २ सच्चन्द्रहासशस्त्रेण छेदय २ भेदय २ झरू २ छरू २ हरू २ फट् २ घे हाँ हाँ आँ क्रों क्ष्वीं ह्रीं क्लीं ब्लूं द्रां द्रीं क्रीं क्षीं क्षीं क्षों ज्वालामालिनी आज्ञापयति स्वाहा ॥ इति सर्वरोगहरस्तोत्रम् ।।
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इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा ने किन्हीं स्थितियों में हिन्दू तान्त्रिक परम्परा का अन्धानुकरण भी किया है और अपने पूजा-विधान में ऐसे तत्त्वों को स्थान दिया है, जो उसकी आध्यात्मिक, निवृत्तिप्रधान और अहिंसक दृष्टि के प्रतिकूल हैं, फिर भी इतना अवश्य है कि इस प्रकार पूजा-विधान तीर्थंकरों से सम्बन्धित न होकर प्राय: अन्य देवीदेवताओं से ही सम्बन्धित है।
प्रस्तुत स्तोत्र की भी यही विशेषता है कि इसके प्रारम्भ में जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए उनमें आध्यात्मिक विकास की कामना की गई है। लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना अथवा मारण, मोहन, वशीकरण आदि की सिद्धि की कामना तो मात्र उनकी शासन देवी ज्वालामालिनी से की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परवर्ती जैनाचार्यों ने भी तीर्थंकर पूजा का प्रयोग तो आत्मविशुद्धि ही माना है, किन्तु लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए यक्ष-यक्षी, नवग्रह, दिक्पाल एवं क्षेत्रपाल (भैरव) की पूजा सम्बन्धी विधान भी निर्मित किये हैं। यद्यपि ये सभी पूजा-विधान हिन्दू-परम्परा से प्रभावित हैं और उनके समरूप भी हैं।
पूजा-विधानों के अतिरिक्त अन्य जैन-अनुष्ठानों में श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषणपर्व, नवपद ओली, बीस स्थानक की पूजा आदि सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले जैन-अनुष्ठान हैं। उपधान नामक तपअनुष्ठान भी श्वेताम्बर - परम्परा में बहुप्रचलित हैं। आगमों के अध्ययन एवं आचार्य आदि पदों पर प्रतिष्ठित होने के लिए भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में मुनियों को कुछ अनुष्ठान करने होते हैं, जिनको सामान्यतया 'योगोद्वहन एवं सूरिमंत्र की साधना कहते हैं। विधिमार्गप्रपा में दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आचारंगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, निशीथसूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगमों के अध्ययन सम्बन्धी अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है।
दिगम्बर - परम्परा में प्रमुख अनुष्ठान या व्रत निम्न हैंदशलक्षणव्रत, अष्टाह्निकाव्रत, द्वारावलोकनव्रत, जिनमुखावलोकनव्रत, जिनपूजाव्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्तिव्रत, तपांजलिव्रत, मुक्तावलीव्रत, कनकावलिव्रत, एकावलिव्रत, द्विकावलिव्रत, रत्नावलीव्रत, मुकुटसप्तमीव्रत, सिंहनिष्क्रीडितव्रत, निर्दोषसप्तमीव्रत, अनन्तव्रत, षोडशकारणव्रत, ज्ञानपच्चीसीव्रत, चन्दनषष्ठीव्रत, रोहिणी व्रत, अक्षयनिधिव्रत, पंचपरमेष्ठिव्रत,
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