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हित और कल्याण के लिए प्रयत्नशील होते हैं, गणधर कहे जाते हैं। समूहहित या गणकल्याण ही उनके ( गणधर के) जीवन का आदर्श होता है । १६
यतीन्द्रसूर स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
सामान्य केवली
जो साधक आत्म-कल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाता है और इसी आधार पर साधना करते हुए आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करता है, वह सामान्य केवली कहा जाता है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में उसे 'मुण्डकेवली' भी कहते हैं। १७
यद्यपि आध्यात्मिक पूर्णता और सर्वज्ञता की दृष्टि से तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली समान ही होते हैं किन्तु लोकहित के उद्देश्य को लेकर इन तीनों में भिन्नता होती है। तीर्थंकर, लोकहित के महान् उद्देश्य से प्रेरित होता है, जबकि गणधर का परहित-क्षेत्र सीमित होता है और सामान्य केवली का उद्देश्य तो मात्र आत्मकल्याण होता है।
६. सामान्य केवली और प्रत्येकबुद्ध
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कैवल्य को प्राप्त करने की विधि की भिन्नता के आधार पर सामान्य केवली वर्ग के भी दो विभाग किये गए हैं१. प्रत्येकबुद्ध २. बुद्धबोधित
प्रत्येकबुद्ध - जैनागमों में समवायांग १८ में प्रत्येकबुद्ध शब्द का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययन में वर्णित करकण्डू, दुर्मुख, नमि और नग्गति को प्रत्येकबुद्ध कहा गया है । १९ इसी प्रकार इसिभासियाई के निम्न ४५ ऋषियों को भी प्रत्येकबुद्ध
कहा गया है
१. देवनारद २. वज्जियपुत्त ३. असितदेवल ४. अंगिरस भारद्वाज ५. पुप्फसालपुत्त ६. वागलचीरी ७. कुम्मापुत्त ८. केतलीपुत्त ९. महाकासव १०. तेत्तलिपुत्त ११. मंखलीपुत्त १२. जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य) १३. भयाली मेतेज्ज १४. बाहुक १५. मधुरायण १६. सोरियायण १७. विदुर १८. वरिसव कह (वारिषेणकृष्ण) १९. आरियायण २०. उक्कल २१. गाहावतिपुत्त तरुण २२. दगभाल २३. रामपुत्त २४. हरिगिरि २५. अंबड, २६. मातंग २७. वारत्तए २८. अद्दएण २९. वद्धमाण ३०. वायु ३१. पास ३२. पिंग ३३. महासालपुत्तअरुण ३४. इसिगिरिमाहण ३५.
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अद्दालअ ३६. तारायण ३७ सिरिगिरिमाहणपरिव्वाय ३८. सातिपुत्तबुद्ध ३९. संजए ४० दीवायणं ४१. इंदनाग ४२. सोम ४३. जम ४४. वरुण ४५. वेसमण ।
जैन - परम्परा के अनुसार वे साधक जो कैवल्य या वीतराग दशा की उपलब्धि के लिए न तो अन्य किसी के उपदेश की अपेक्षा रखते हैं और न संघीय जीवन में रहकर साधना करते हैं वे प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं । प्रत्येकबुद्ध किसी निमित्त को पाकर स्वयं ही बोध को प्राप्त होता है तथा अकेला ही प्रव्रजित होकर साधना करता है। वीतराग अवस्था और केवल्य प्राप्त करके भी एकाकी ही रहता है। ऐसा एकाकी आत्मनिष्ठ साधक प्रत्येकबुद्ध कहा जाता प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकर दोनों को ही अपने अन्तिम भव में किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वयं ही सम्बुद्ध होते हैं। यद्यपि जैनाचार्यों के अनुसार जहाँ तीर्थंकर को बोध हेतु किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती, वहाँ प्रत्येकबुद्ध को बाह्य निमित्त की आवश्यकता होती है। यद्यपि जैन-कथा-साहित्य में ऐसे भी उल्लेख हैं, जहाँ तीर्थंकरों को भी बाह्य निमित्त से प्रेरित होकर विरक्त होते दिखाया गया है, यथा- ऋषभ का नीलाञ्जना नामक नर्तकी की मृत्यु से विरक्त होना। प्रत्येकबुद्ध किसी भी सामान्य घटना से बोध को प्राप्त कर प्रव्रजित हो जाता है। जैन परम्परा में उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित में प्रत्येकबुद्धों के उपदेश संकलित हैं किन्तु इन ग्रंथों में प्रत्येकबुद्ध शब्द नहीं मिलता है। प्रत्येकबुद्ध शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख स्थानांग, समवायांग और भगवती में मिलता है । यद्यपि तीनों ही आगम ग्रन्थ परवर्तीकाल के ही माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रत्येकबुद्धों की अवधारणा का विकास परवर्तीकाल में ही हुआ है। वस्तुतः उन विचारकों और आध्यात्मिक साधकों को जो इन परम्पराओं से सीधे रूप में जुड़े हुए नहीं थे किन्तु उन्हें स्वीकार कर लिया गया था, प्रत्येकबुद्ध कहा गया ।
बुद्धबोधित - बुद्धबोधित वे साधक हैं, जो अपने अन्तिम जन्म में भी किसी अन्य से उपदेश या बोध को प्राप्त कर प्रव्रजित होते हैं और साधना करते हैं । सामान्य साधक बुद्धबोधित होते हैं।
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जैनधर्म में तीर्थंकर को गणधर, प्रत्येकबुद्ध और सामान्यकेवली से पृथक् करके एक अलौकिक पुरुष के रूप में
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