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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म तीर्थ नाम से सम्बोधित किए जाने वाले स्थान आदि नाम मूर्ख (जड़) होते हैं और अन्तिम (तीर्थंकर) के वक्र जड़ होते -तीर्थ कहे जाते हैं। जिन स्थानों पर भव्य आत्माओं का जन्म, हैं. जबकि मध्यम के ऋज और प्राज्ञ होते हैं। इस गाथा से ऐसा मक्ति आदि होती है और उनकी स्मृति में मंदिर, प्रतिमा आदि लगता है कि उत्तराध्ययन के २३वें अध्याय के रचनाकाल तक स्थापित किए जाते हैं, वे स्थापनातीर्थ कहलाते हैं। जल में तीर्थंकर की अवधारणा बन चकी होगी। इस गाथा से इतना डूबते हुए व्यक्ति को पार कराने वाले, मनुष्य की पिपासा को अवश्य फलित होता है कि उस यग तक महावीर को अन्तिम शान्त करने वाले और मनुष्य-शरीर के मल को दूर करने वाले तथा पार्श्व को उनका पूर्ववर्ती तीर्थंकर और ऋषभ को प्रथम द्रव्यतीर्थ कहलाते हैं। जिनके द्वारा मनुष्य के क्रोध आदि मानसिक तीर्थंकर माना जाने लगा होगा। वैसे तीर्थंकर की विकसित विकास दूर होते हैं तथा व्यक्ति भवसागर से पार होता है, वह अवधारणा हमें मात्र समवायांग और भगवती में ही मिलती है। निर्ग्रन्थ-प्रवचन भावतीर्थ कहा जाता है। भावतीर्थ पूर्व संचित समवायांग में भी यह सारी चर्चा उसके अंत में जोडी गई है। कर्मा को दूर कर तप, संयम आदि के द्वारा आत्मा को शुद्धि इससे इसकी परिवर्तिता निश्चित रूप से सिद्ध होती है। नन्दी में करने वाला होता है। तीर्थंकरों के द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ भी समवायांग की विषय-वस्त की चर्चा में प्रकीर्णक समवाय का संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाला होने से भावतीर्थ कहा उल्लेख ही नहीं है। सम्भवतः आचारांग के प्रथम श्रतस्कंध के जाता है। इस भावतीर्थ के संस्थापक ही तीर्थंकर कहे जाते हैं।६।। रचनाकाल तक न तो तीर्थंकरों की २४ की संख्या निश्चित हुई तीर्थंकर शब्द का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, भगवती
और न यह निश्चित हुआ था कि ये तीर्थंकर कौन-कौन हैं। ज्ञाताधर्मकथा, प्रश्रव्याकरण, विपाकसूत्र में उपलब्ध होता है
स्थानांग में ऋषभ, पार्श्व और वर्धमान के अतिरिक्त वारिषेण किन्तु कालक्रम की दृष्टि से ये सभी आगम परवर्ती माने गए हैं। का उल्लेख हुआ है, किन्तु वर्तमान में २४ तीर्थंकरों की प्राचीन स्तर के आगमों में आचारांग १, सूत्रकृतांग १, उत्तराध्ययन, अवधारणा में वारिषेण का उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भावना है दशवैकालिक और ऋषिभाषित आते हैं किन्तु इन आगम-ग्रंथों कि आगे वारिषेण के स्थान पर अरिष्टनेमि को समाहित किया में केवल उत्तराध्ययन में ही त्थियर' शब्द मिलता है। अन्य गया होगा, क्योंकि मथुरा में जो मूर्तियाँ मिली हैं, उनमें ऋषभ, किसी भी प्राचीन स्तर के ग्रन्थ में यह शब्द उपलब्ध नहीं है। अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर का उल्लेख है। पार्श्व और महावीर आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और की ऐतिहासिकता तो सुनिश्चित ही है। अरिष्टनेमि और ऋषभ उत्तराध्ययन में अरहंत शब्द का प्रयोग ही अधिक हुआ है। की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में भी कुछ आधार मिल सकते तीर्थंकर की अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अरहंत की हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में अरिष्टनेमि को भगवान लोकनाथ और अवधारणा से हुआ है। आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध में भतकाल दमीश्वर की उपाधि दी गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि और भविष्यत्काल के अर्हन्तों की अवधारणा मिलती है। फिर जैन-परम्परा के साहित्य में जिन आगमिक ग्रंथों को द्वितीय भी इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि उस युग में यह विचार दृढ स्तर का माना गया है, उनमें ही तीर्थंकर की अवधारणा का हो गया था कि भूतकाल में कुछ अहँत् हो चुके हैं, वर्तमान में विकसित रूप देखा जाता है। साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक आधारों कुछ अहंत हैं और भविष्यकाल में कुछ अहँत होंगे। संभवतः से ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में २४ यही वर्तमान, भूत और भावी तीर्थकरों की अवधारणा के विकास का आधार रहा होगा। सूत्रकतांग में भी हमें 'अरह' शब्द मिलता
ता ३. तीर्थंकर की अवधारणा है, तीर्थंकर शब्द नहीं मिलता। प्राचीन ग्रन्थों में सबसे पहले हमें उत्तराध्ययन में 'तित्थयर' शब्द मिलता है। इसके २३ वें अध्याय पूर्वकाल में तीर्थंकर का जीव भी हमारी तरह ही क्रोध, में अर्हत पार्श्व और भगवान वर्धमान को धर्म-तीर्थकर (धम्म मान, माया, लोभ, इन्द्रियसुख आदि जागतिक प्रलोभनों में फँसा ....तित्थयरे) यह विशेषण दिया गया है। उत्तराध्ययन के इसी हुआ था। पूर्व जन्मों में महापुरुषों के सत्संग से उसके ज्ञान-नेत्र २३वें अध्याय की २६वीं एवं २७वीं गाथा में कहा गया है कि खुलते हैं, वह साधना के क्षेत्र में प्रगति करता है और तीर्थंकर पहले (तीर्थंकर) के साधु ऋजु जड़ अर्थात् सरलचित्त और wordarodukrabrdworansarorandednoramidnirorandird-२१HAirirandirooridododmrodwidwidwaridwoard
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