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- चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
आदि अथवा जिनेन्द्रदेव के गर्भ जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं नहीं थी, जितनी कि शैव सम्प्रदाय की ।
निर्वाण के स्थल द्रव्यतीर्थ हैं, जबकि मोक्षमार्ग और उसकी साधना करने वाला चतुर्विधसंध भावतीर्थ है" । इस प्रकार जैनधर्म में सर्वप्रथम तो जिनोपदिष्ट धर्म, उस धर्म का पालन करने वाले साधु-साध्वी श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विधसंघ को ही तीर्थ और उसके संस्थापक को तीर्थङ्कर तीर्थ कहा गया है। यद्यपि परवर्ती काल में पवित्र स्थल भी द्रव्यतीर्थ के रूप में स्वीकृत किये गये हैं ।
तीर्थ शब्द धर्मसंघ के अर्थ में
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प्राचीन काल में श्रमण परम्परा के साहित्य में 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग धर्म संघ के अर्थ में होता रहा है। प्रत्येक धर्मसंघ या धार्मिक साधकों का वर्ग तीर्थ कहलाता था, इसी आधार पर अपनी परम्परा से भित्र लोगों को तैर्थिक या अन्यतैर्थिक कहा जाता था। जैन साहित्य में बौद्ध आदि अन्य श्रमण परम्पराओं को तैर्थिक या अन्य तैर्थिक के नाम से अभिहित किया गया है" बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्यफलसुत में भी निर्मन्य ज्ञातुपुत्र महावीर के अतिरिक्त मंखलिगोशालक, अजित केशकम्बल, पूर्णकाश्यप, पकुधकात्यायन आदि को भी तित्थकर (तीर्थंकर) कहा गया है। इससे यह फलित होता है कि उनके साधकों का वर्ग भी तीर्थ के नाम से अभिहित होता था। जैन परम्परा में तो जैनसंघ या जैन साधकों के समुदाय के लिए तीर्थ शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक यथावत् प्रचलित है । आचार्य समन्तभद्र ने महावीर की स्तुति करते हुए कहा है कि हे भगवन्! आपका यह तीर्थ सर्वोदय अर्थात् सबका कल्याण करने वाला है"। महावीर का धर्मसंघ सदैव ही तीर्थ के नाम से अभिहित किया जाता रहा है ।
३. तीसरे वर्ग में ऐसे तीर्थ का उल्लेख हुआ है 'जिसमें प्रवेश तो कठिन है किन्तु साधना सुकर है।' भाष्यकार ने इस सन्दर्भ में जैनों के ही अचेल सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। इस संघ में अचेलकता अनिवार्य थी, अतः इस तीर्थ को प्रवेश की दृष्टि से दुष्कर, किन्तु अनुपालन की दृष्टि से सुकर माना गया है।
४. ग्रन्थकार ने चौथे वर्ग में उस तीर्थ का उल्लेख किया है। जिसमें प्रवेश और साधना दोनों दुष्कर है और स्वयं इस रूप में अपने ही सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। यह वर्गीकरण कितना समुचित है यह विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इतना निश्चित है कि साधनामार्ग की सुकरता या दुष्करता के आधार पर जैन- परम्परा में विविध प्रकार के तीर्थों की कल्पना की गई है और साधना मार्ग को ही तीर्थ के रूप में ग्रहण किया गया है।
साधना की सुकरता और दुष्करता के आधार पर तीर्थों का निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ : वर्गीकरण
विशेषावश्यकभाष्य में साधना-पद्धति के सुकर या दुष्कर होने के आधार पर भी इन संघरूपी तीर्थों का वर्गीकरण किया गया है । भाष्यकार ने चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि
१. सर्वप्रथम कुछ तीर्थ (तट) ऐसे होते हैं जिनमें प्रवेश भी सुखकर होता है और जहाँ से पार करना भी सुखकर होता है; इसी प्रकार कुछ तीर्थ या साधक संघ ऐसे होते हैं, जिनमें प्रवेश भी सुखद होता है और साधना भी सुखद होती है। ऐसे तीर्थ का उदाहरण देते हुए भाष्यकार ने शैवमत का उल्लेख किया है, क्योंकि शैव सम्प्रदाय में प्रवेश और साधना दोनों ही सुखकर माने गये हैं ।
२. दूसरे वर्ग में वे तीर्थ (तट) आते हैं जिनमें प्रवेश तो सुखरूप हो किन्तु जहाँ से पार होना दुष्कर या कठिन हो। इसी प्रकार कुछ धर्मसंघों में प्रवेश तो सुखद होता है किन्तु साधना कठिन होती है। ऐसे संघ का उदाहरण बौद्ध संघ के रूप में दिया गया है। बौद्ध-संघ में प्रवेश तो सुलभतापूर्वक सम्भव था, किन्तु साधना उतनी सुखरूप
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इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में तीर्थ से तात्पर्य मुख्य रूप से पवित्र स्थल की अपेक्षा साधना विधि से लिया गया है और ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मोक्षमार्ग को ही भावतीर्थ कहा गया है, क्योंकि ये साधक के विषय कषायरूपी मल को दूर करके समाधि रूपी आत्मशान्ति को प्राप्त करवाने में समर्थ हैं। प्रकारान्तर से साधकों के वर्ग को भी तीर्थ कहा गया है। भगवतीसूत्र में तीर्थ की व्याख्या करते हुए स्पष्टरूप से कहा गया है कि चतुर्विध श्रमणसंघ ही तीर्थ है । भ्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविकायें- इस चतुर्विध श्रमणसंघ के चार अंग हैं। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि प्राचीन जैन ग्रन्थों में तीर्थ शब्द को संसार समुद्र से पार कराने वाले साधन के रूप में ग्रहीत करके त्रिविध साधना मार्ग और उसका अनुपालन करने वाले चतुर्विध भ्रमणसंघ को ही वास्तविक तीर्थ माना गया है।
जैनों की दिगम्बर-परम्परा में तीर्थ का विभाजन निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ के रूप में हुआ है। निश्चयतीर्थ के रूप में सर्वप्रथम तो आत्मा के शुद्ध-बुद्ध स्वभाव को ही निश्चयतीर्थ कहा गया है। उसमें कहा गया है कि पंचमहाव्रतों से युक्त सम्यक्त्व से विशुद्ध, पाँच इन्द्रियों से संवत निरपेक्ष आत्मा ही ऐसा तीर्थ है जिसमें दीक्षा और शिक्षा रूप स्नान करके पवित्र हुआ जाता है।" पुनः निर्दोष सम्यक्त्व, क्षमा आदि धर्म, निर्मलसंयम, उत्तम तप और यथार्थज्ञान- ये सब भी कषायभाव से रहित और शान्तभाव से युक्त होने पर नियतीर्थ माने गये हैं"। इसी प्रकार मूलाचार में श्रुतधर्म को तीर्थ कहा गया है, " क्योंकि वह ज्ञान के माध्यम से आत्मा को पवित्र बनाता है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि वे सभी साधन जो आत्मा के विषय कषायरूपी मल को दूर कर उसे संसार समुद्र से पार उतारने में सहायक होते हैं या पवित्र बनाते हैं, वे निश्चयतीर्थ हैं। यद्यपि बोधपाहुड की टीका (लगभग ११वीं शती) में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि 'जो निश्चयतीर्थ की प्राप्ति का कारण है ऐसे जगत्-प्रसिद्ध मुक्तजीवों के चरणकमलों से संस्पर्शित ऊर्जयंत, [१२]
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