________________ यदि यह मान्यता बनी रहती कि ईश्वर पापों को क्षमा कर सकता है, असद् कर्म जनित फल से बचा सकता है तो निश्चित ही आलस्य प्रवृत्तियों को प्रश्रय मिलता, अज्ञान के गर्त में पड़े रहने की ही प्रकृति बनी रहती और असद् प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति में भी ऐसे लोग संकुचित न होते ; फलस्वरूप सामाजिक-अशान्ति को प्रश्रय मिलता , परन्तु जैन धर्म की ईश्वर संबंधी मान्यता ने यह प्रमाणित कर दिया है कि ऐसी धारणाएं दुःखोत्पादक हैं, ___ मनुष्य अपना कल्याण करने के लिए स्वतंत्र है। पूजा अर्चना-आराधना कर अपने भावों को निर्मल बनाया जा सकता है और निर्मल भावों द्वारा निस्पृही बनकर, काषायिक भावों को जीतकर, निविषयी होकर वीतरागी साधना से वह कर्मजनित दुःखों का अन्त कर सकता है , यह उसकी आकांक्षा सामर्थ्य तथा विवेक पर आश्रित है— "नर चाहे नर बना रहे, या बन जाये नारायण ," इस प्रकार 'स्वावलम्बन' की भावना को जन्म देना जैन धर्म के गहन चिन्तन का परिणाम है , यह भावना विश्व के लिए जैन धर्म की मौलिक देन कही जा सकती है , क्योंकि मुक्त, सतर्क, हितैषी ऐसा गहन चिन्तन अन्य धर्मों में न के बराबर ही उपलब्ध है, ज्ञान की प्रधानता और मुक्ति की साधना-चिन्तन के अनुक्रम में जब हम ज्ञान और मुक्ति की साधना के संबंध में विचार करते हैं तो साधना के विविध रूप दिखायी देते है। साधन हेतु बौद्ध धर्म में जैसे मध्यम मार्ग की खोज की गई वैसे ही अन्य धर्मों ने भी साधना के सरलतम मार्ग को निर्देशित कर जन समूह को आकृष्ट किया / परन्तु जैन धर्म ने किसी भी प्रकार न केवल साधना के क्षेत्र में अपितु अपने मौलिक सिद्धान्तों में भी कभी कोई परिवर्तन नहीं किया। साधना के जैसे कठोर नियमों का जैन धर्म ने उल्लेख किया है, वैसे कठोर शारीरिक कष्टदायी नियमों का इतर धर्मों में समावेश नहीं किया गया है। नियमादि की कठोरता ही प्रधान कारण थी जो कि जैन धर्म कल्याणकारी धर्म होते हुए भी लोकधर्म न बन सका और भारतीय सीमाओं में ही सीमित रह गया। कड़वी गुणकारी भेषज के समान फिर भी यह धर्म विवेकवानों के बीच बना रहा है और यही कारण है कि आज भी इस धर्म का यथावत् अस्तित्व विद्यमान है। जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है / बीतरागता इस धर्म की आत्मा है / साधना भी बीतरागतामयी है। वीतरागता का ही प्रभाव है जो कि इस धर्म में बाह्याडम्बर को किसी भी प्रकार से प्रश्रय नहीं मिल सका है, और अन्य तत्त्वदर्शियों को भी यह प्रभावित कर सका है। जैन धर्म से प्रभावित होने के कारण ही संभवत: साधु कबीर इस धर्म की आलोचना करने में असमर्थ रहे प्रतीत होते हैं। उन्हें इतर धर्मों के समान इस धर्म में ऐसी कोई बुराई समझ में नहीं आई जिसका कि वे समाज में उल्लेख करते / यथार्थ में यह धर्म बाह्य नग्नता को जितना महत्त्व देता है उससे कहीं अधिक वह आन्तरिक भावों को महत्त्वपूर्ण समझता है। यही कारण है कि अन्तस्थ विचारों, भाषणों तथा शारीरिक विचरण पर नियंत्रण रखते हुए भावों में वीतरागता का लाना ही साधना की सफलता का मूलाधार इस धर्म में बताया गया है। ज्ञान का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि साधना का प्रधान साधन ज्ञान ही है / यह ज्ञान श्रद्धा के साथ-साथ ही उत्पन्न होता है / ज्ञान ही एक ऐसा साधन है त्रिगुप्ति पूर्वक जिसकी साधना से सहज ही कर्मों का विनाश किया जा सकता है / अनुभव में भी यही आता है कि सद्ज्ञानी सहज ही त्याज्य वस्तुओं को त्याज्य समझकर त्याग कर देता है जबकि आज्ञानी त्याज्य समझते हुए भी मोहाधीन होकर वस्तुओं का परित्याग नहीं कर पाता है। यदि किसी प्रकार विवशता वश त्याग भी दे तो उसकी प्राप्त्याशा बनी ही रहती है जो कि दुःख का मूल कारण कहा गया है / ज्ञान ही एक ऐसा साधन है जिसके होते ही क्रिया भी तदनुरूप परिणत होती है। मनसा वाचा-कर्मणा एक होना ही ज्ञान होने का प्रतीक है। यह ज्ञान इन्द्रियों और मन की सहायता से तथा तर्क द्वारा प्राप्त किया जाता है। जब कर्मों का आंशिक प्रभाव नष्ट हो जाता है तो अवधिज्ञान; तथा जब ईर्ष्या, घृणादि का नाश हो जाता है तब मनःपर्यय ज्ञान होता है। और जब सभी कर्मबन्धन नष्ट हो जाते हैं तब तीन लोक के पदार्थों का एक साथ ज्ञान कराने वाला केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। यथार्थ में सम्यक् ज्ञान यही है / जो चरित्र हमें बन्धन से छुड़ाता है वह सम्यक्चारित्र कहा जाता है। इस दर्शन-ज्ञान-चरित्र को इस धर्म में रत्नत्रय संज्ञा दी गई है और जिसे मुक्ति का मार्ग बताया गया है, जो मुक्ति अनन्त आनन्द का धाम सुखों का भंडार है। इस प्रकार ज्ञान की महत्ता प्रतिपादिन कर विवेक बुद्धि उत्पन्न करने का प्रयास किया गया है। हिताहित का ज्ञान कराने वाला विवेक ही है जिसके अभाव में जीव दु:ख सागर में पड़ा हुआ है। और विवेक ही ऐसा साधन है जो असद् प्रवृत्तियों से मनुष्य को लौटा सकता है। तथा समाज में शान्ति स्थापित कर सकता है। ऐसी अनुपम निधि की महत्ता प्रतिपादित करना जैन धर्म की एक विशेषता है। यदि मुक्ति को असीम सुखों का भंडार न कहा गया होता तो उसकी प्राप्ति के लिए कौन प्रयत्न करता / इसी प्रकार यदि ज्ञान में उसकी प्राप्ति का साधन न बताया गया होता तो जन समूह उसकी ओर आकर्षित न होता जिसके अभाव में विवेक शून्यता रहती और विवेक के अभाव में असद् प्रवृत्तियों में पड़कर यह मनुष्य न केवल सामाजिक शान्ति भंग करता अपितु स्वयं की शान्ति भी भंग कर बैठता। जैन धर्म की अनेकान्त और स्याद्वाद-दृष्टियां भी उसकी मौलिक देन हैं। ये ऐसी दृष्टियां हैं जिनसे विसंवाद को सहज ही आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org