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________________ - चतीन्द्रसूरि स्मारक आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हमें अनेक अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध होते हैं । इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर प्रो० आदि नाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने 'अनेकान्त वर्ष २८, किरण- १ में ग्रापनीय संघ के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रस्तुत विवेचन का आधार उनका वही लेख है किन्तु हमने इन अभिलेखों के मुद्रित रूपों को देखकर अपेक्षित सामग्री को जोड़ा भी है। यापनीय - संघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अभिलेख हमें 'कदम्बवंशीय' मृगेशवर्मन् ई० सन् (४७५-४९०) का प्राप्त होता है। इस अभिलेख में यापनीय निर्व्रन्थ एवं कुर्यकों को भूमिदान का उल्लेख मिलता है। इसी काल के एक अन्य अभिलेख (ई० सन् ४९७ से ५३७ के मध्य) दामकीर्ति, जयकीर्ति प्रतीहार, निमित्तज्ञान पारगामी आचार्य बन्धुसेन और तपोधन शाखागम खिन्न कुमारदत्त नामक चार यापनीय आचायों एवं मुनियों के उल्लेख हैं"। इसमें यापनीयों को तपस्वी (थापनीयास्तपस्विनः) तथा सद्धर्ममार्ग में स्थित ( सद्धर्ममार्गस्थित ) कहा गया है। आचार्यों के लिए 'सूरि' शब्द का प्रयोग हुआ है। इन दोनों अभिलेखों से यह भी सूचना मिलती है कि राजा ने मन्दिर की पूजा, सुरक्षा और दैनिक देखभाल के साथ-साथ अष्टाह्निका महोत्सव एवं यापनीय साधुओं के भरण-पोषण के लिए दान दिया था, इससे यह फलित होता है कि इस काल तक यापनीय संघ के मुनियों के आहार के लिए कोई स्वतन्त्र व्यवस्था होने लगी थी और भिक्षावृत्ति गौण हो रही थी अन्यथा उनके भरण-पोषण हेतु दान दिये जाने के उल्लेख नहीं होते। इसके पश्चात् देवगिरि से कदम्बवंश की दूसरी शाखा के कृष्णवर्मा के ( ई० सन् ४७५-४८५) काल का अभिलेख मिलता है, जिसमें उसके पुत्र युवराज देववर्मा द्वारा त्रिपर्वत के ऊपर के कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवान के चैत्यालय की मरम्मत, पूजा और महिमा के लिए यापनीय संघ को दिये जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख के पश्चात् ३०० वर्षों तक हमें यापनीय संघ से सम्बन्धित कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता जो अपने आप में एक विचारणीय तथ्य है । इसके पश्चात् ई० सन् ८१२ का राष्ट्रकूट राजा प्रभूतवर्ष का एक अभिलेख प्राप्त होता है४९ । इस अभिलेख में यापनीय आचार्य कुविलाचार्य के प्रशिष्य एवं विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति का उल्लेख मिलता है । इस अभिलेख में यापनीय नन्दीसंघ और पुत्रागवृक्ष मूलगण एवं श्री कित्याचार्यान्दय का भी उल्लेख हुआ है। इस अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि आचार्य अर्ककीर्ति ने शनि के दुष्प्रभाव से ग्रसित पुलिगिल देश के शासक विमलादित्य का उपचार किया था। इस अभिलेख से अन्य फलित यह निकलता है कि ईसा की नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यापनीय आचार्य न केवल मठाधीश बन गये थे अपितु वे वैद्यक और यन्त्र-मन्त्र आदि का कार्य भी करने लगे थे। लगभग ९वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख " में जो कि चिंगलपेठ, तमिलनाडु से प्राप्त हुआ है, यापनीय संघ और कुमिलिगण के महावीराचार्य के शिष्य अमरमुदलगुरु का उल्लेख है जिन्होंने देशवल्लभ नामका एक जिनमन्दिर बनवाया था । इस दानपत्र में यापनीय संघ के साधुओं के Jain Education International भरण-पोषण का भी उल्लेख है। इससे भी यही लगता है कि इस काल तक यापनीय मुनि पूर्णतया मठाधीश हो चुके थे और मठों में ही उनके आहार की व्यवस्था होती थी। इसके पश्चात् यापनीय संघ से सम्बन्धित एक अन्य दानपत्र पूर्वी चालुक्यवंशीय 'अम्मराज द्वितीय' का है" । इसने कटकाभरण जिनालय के लिए मलिवपुण्डी नामक ग्राम दान में दिया था। इस मन्दिर के अधिकारी यापनीय संघ 'कोटिमदुवगण' नन्दिगच्छ के गणधर सदृश मुनिवर जिननन्दी के प्रशिष्य मुनिपुंगव दिवाकर के शिष्य जिनसदृश गुणसमुद्र महात्मा श्री मन्दिर देव थे। इससे पूर्व के अभिलेख में जहाँ यापनीय नन्दीसंघ ऐसा उल्लेख है, वहाँ इसमें यापनीय संघ नन्दीगच्छ ऐसा उल्लेख है। यापनीय संघ से ही सम्बन्धित ई० सन् ९८० का चालुक्यवंश का भी एक अभिलेख मिलता है। इस अभिलेख में शान्तिवर्म्म द्वारा निर्मित जैन मन्दिर के लिए भूमिदान का उल्लेख है, इसमें वापनीय संघ के काण्डुरगण के कुछ साधुओं के नाम दिये गये हैं यथा बाहुबलिदेवचन्द्र रविचन्द्रस्वामी, अर्हन्दी, शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव, मौनिदेव और प्रभाचन्द्रदेव आदि। इसमें प्रभाचन्द्र को शब्द विद्यागमकमल, षट्तर्काकलङ्क कहा गया है। ये प्रभाचन्द्र 'प्रमेव कमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमदचन्द्र' के कर्ता प्रभाचन्द्र से भिन्न यापनीय आचार्य शाकटायन के 'शब्दानुशासन' पर 'न्यास' के कर्त्ता हैं । ५३ प्रो० पी० बी० देसाई ने अपने ग्रन्थ में सौदत्ति (बेलगाँव) के एक अभिलेख की चर्चा की है जिसमें यापनीय संघ के काण्डुरगण के शुभचन्द्र प्रथम चन्द्रकीर्ति, शुभचन्द्र द्वितीय, नेमिचन्द्र प्रथम कुमार कीर्ति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय के उल्लेख हैं । इसी प्रकार यापनीय संघ से सम्बन्धित ई० सन् १०१३ का एक अन्य अभिलेख 'बेलगाँव' की टोड्डावसदी की नेमिनाथ की प्रतिमा की पादपीठ पर मिला है, जिसे पापनीय संघ के पारिसथ्य ने ई० सन् १०१३ में निर्मित करवाया था। इसी प्रकार सन् २०२० ई० के 'रद्दग' लेख में प्रख्यात यापनीय संघ के 'पुत्रागवृक्षमूलगण के प्रसिद्ध उपदेशक आचार्य कुमारकीर्ति पण्डितदेव को 'हुविनवागे' की भूमि के दान का उल्लेख है ।५५ ई० सन् १०२८-२९ के हासुर के अभिलेख में यापनीय संघ के गुरु जयकीर्ति को सुपारी के बाग और कुछ घर मन्दिर को दान में देने के उल्लेख हैं । ५६ 'हुली' के दो अभिलेख जो लगभग ई० सन् १०४४ के है उनमें यापनीय संघ के पुन्नागवृक्ष मूलगण के बालचन्द्रदेव भट्टारक" का तथा दूसरे में रामचन्द्रदेव का उल्लेख है। इसी प्रकार ई० सन् १०४५ के मुगद (मैसूर) लेख में भी यापनीय-संघ श्रीकीर्ति के कुमुदिगण के कुछ आचायों के उल्लेख मिलते हैंगोरवदि, प्रभाशशांक नववृत्तिनाथ, एकवीर, महावीर, नरेन्द्रकीर्ति नागविक्कि वृत्तीन्द्र, निरवद्यकीर्ति भट्टारक, माधवेन्दु, बालचन्द्र, रामचन्द्र, मुनिचन्द्र, रविकीर्ति कुमारकीर्ति, दामनंदि, त्रैविद्यगोवर्धन, दामनन्दि वढाचार्य आदि । यद्यपि प्रोफेसर उपाध्ये ने इन नामों में से कुछ के सम्बन्ध में कृत्रिमता की सम्भावना व्यक्ति की है किन्तु उनका आधार क्या है, यह उन्होंने अपने लेख में स्पष्ट नहीं किया है । insuransiran 24 Ja For Private & Personal Use Only , - www.jainelibrary.org
SR No.210748
Book TitleJain Dharm ka Vilupta Sampraday Yapaniya
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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