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________________ - चतीन्द्रसूरि स्मारकान् आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म का शिष्य बताया गया है सम्भावना यह हो सकती है कि शिवभूति और आर्यकृष्ण गुरु-शिष्य न होकर गुरु बन्धु हों किन्तु इससे शिवभूति और आर्यकृष्ण के समकालिक होने में कोई बाधा नहीं आती है। यह भी सत्य ही है कि उपाधि के प्रश्न को लेकर शिवभूति और आर्यकृष्ण के बीच यह विवाद हुआ होगा और शिवभूति के शिष्यों कौडिन्य और कोट्यवीर से अचेलता की समर्थक यह धारा पृथक् रूप से प्रवाहित होने लगी । यापनीयों का उत्पत्ति स्थल - यापनीयों अथवा बोटिकों के उत्पत्ति-स्थल को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएं भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखती हैं श्वेताम्बरों के अनुसार उनकी उत्पत्ति रथवीरपुर नामक नगर में हुई, यह नगर मथुरा के समीप उत्तर भारत में स्थित था। जबकि दिगम्बरों के अनुसार इनका उत्पत्ति स्थल दक्षिण भारत में उत्तर पश्चिमी कर्णाटक में स्थित करहाटक था। इस प्रकार श्वेताम्बरों के अनुसार वे उत्तर में और दिगम्बरों के अनुसार दक्षिण में उत्पन्न हुए। प्रश्न यह है कि उनमें से कौन सत्य है। वे परम्परा के पक्ष में तथ्य यह है कि उसमें इस विभाजन को आर्यकृष्ण और शिवभूति से सम्बन्धित किया है इन दोनों के उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में उपलब्ध है पुनः आर्यकृष्ण की अभिलेख सहित मूर्ति भी मथुरा से उपलब्ध है जो वस्त्रखण्ड कलाई पर डालकर अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं । अस्तु, आवश्यकमूलभाष्य का उत्तर भारत में उनकी उत्पत्ति का संकेत प्रामाणिक है जहाँ तक रत्ननन्दी के दक्षिण भारत में इनकी उत्पत्ति के उल्लेख का प्रश्न है, वह इसलिए अधिक प्रामाणिक नहीं है क्योंकि प्रथम तो वह उनकी उत्पत्ति १२०० वर्षों बाद जब यह सम्प्रदाय मरणासन्न स्थिति में था तब लिखा गया जबकि आवश्यकमूलभाष्य उनकी उत्पत्ति के लगभग २०० वर्ष पश्चात् निर्मित हो चुका था । दूसरे उस कथानक की पुष्टि के अन्य कोई साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है। दक्षिण भारत में उनकी उत्पत्ति बताने का मूल कारण यह है कि पापनीयों का दिगम्बर- परम्परा से साक्षात्कार दक्षिण भारत में ही हुआ था । I क्या यापनीय और बोटिक एक हैं ? जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं प्राचीन श्वेताम्बर साहित्य में यापनीय संघ का उल्लेख हरिभद्र के पूर्व उपलब्ध नहीं होता है, उसके पूर्व हमें जो उल्लेख मिलता है, वह बोटिकों का ही है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि बोटिक कौन थे ? क्या इनका यापनीयों से कोई सम्बन्ध था ? इनकी परम्परा क्या थी ? बोटिकों की उत्पत्ति-कथा से ही यह स्पष्ट है कि इन्होंने जिनकल्प का विच्छेद स्वीकार नहीं किया था और वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया। शिवभूति द्वारा अपनी बहन उत्तरा को वस्त्र रखने की अनुमति देना यह भी सूचित करता है कि इस सम्प्रदाय में साध्वियाँ सवस्त्र रहती थीं। इस सम्प्रदाय के तत्कालीन Jain Education International परम्परा से मतभेद के जो उल्लेख मिलते हैं उनसे यही फलित होता है कि उनका मुख्य विवाद मुनि के ही सचेल और अचेल होने के सम्बन्ध में था स्त्री मुक्ति और कवलाहार के सम्बन्ध में इनका कोई मतभेद नहीं था। विशेषावश्यकभाष्य में इन्हें आचाराङ्ग आदि आगमों को स्वीकार करने वाला माना गया है। ये दिगम्बर- परंपरा के समान न तो स्त्री-मुक्ति और केवली-मुक्ति का निषेध करते थे और न जैनागमों का पूर्णतः विच्छेद ही स्वीकार करते थे मात्र यह कहते थे कि आगमों में जो वस्त्र - पात्र के उल्लेख हैं वे आपवादिक स्थिति के हैं। इस प्रकार ये स्त्री-मुक्ति और केवली - कवलाहार की विरोधी और आगमों को विच्छिन्न मानने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न हैं। इस सम्बन्ध में पं० दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० ढाकी और मेरा लेख द्रष्टव्य है यदि हम बोटिकों की इस मान्यता की तुलना यापनीय परम्परा से करते हैं तो दोनों में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता । यापनीयों का जो भी साहित्य उपलब्ध है, उससे भी स्पष्ट रूप से यही निष्कर्ष निकलता है कि यापनीय यद्यपि मुनि की अचेलता पर बल देते थे किन्तु दूसरी ओर वे स्त्री-मुक्ति, अन्य तैर्थिकों (दूसरी धर्म - परम्परा) की मुक्ति, केवलीकवलाहार और आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान आदि अर्धमागधी आगमों को स्वीकार करते थे। वे दिगम्बर-परम्परा के समान अंग आदि आगमों के सर्वथा विच्छेद की बात नहीं मानते हैं, इस परम्परा में आगे चलकर जिन स्वतन्त्र ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का निर्माण हुआ उनमें अर्धमाग आगम साहित्य की सैकड़ों गाथायें और उद्धरण प्राप्त होते हैं। अतः उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पूर्णरूपेण सुनिश्चित है कि यापनीय और बोटिक दोनों सम्प्रदाय एक ही हैं। सम्भवतः उन्हें 'बोटिक' श्वेताम्बरों ने और 'यापनीय' नाम दिगम्बरों ने प्रदान किया था। क्योंकि श्वेताम्बर ग्रन्थों के अतिरिक्त उनके लिये कहीं भी बोटिक नाम का उल्लेख नहीं है। उस समय वे अपने आपको क्या कहते थे ? यह शोध का विषय है। यद्यपि अभिलेखीय साक्ष्यों से यह निश्चित होता है कि पांचवीं शताब्दी से वे अपने लिये 'बापनीय' शब्द का प्रयोग करने लगे थे। अभिलेखों में सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयोग मृगेशवर्मन के हल्सी के अभिलेख में हुआ है जो पाँचवीं शती का है। अतः इसके पश्चात् इनके लिए यापनीय शब्द प्रयोग होने लगा होगा और आवश्यक मूलभाष्य में प्रयुक्त बोटिक केवल श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य तक ही सीमित रह गया । यापनीय संघ के अभिलेखीय साक्ष्य यापनीय संघ और उसके आचार्यों, भट्टारकों एवं उपासकों के सम्बन्ध में हमें जो सूचनायें उपलब्ध होती हैं, उनके दो आधार हैं- एक साहित्यिक उल्लेख और दूसरे अभिलेखीय साक्ष्य इन साहित्यिक उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में भी अभिलेखीय साक्ष्य अधिक प्रामाणिक कहे जा सकते हैं क्योंकि प्रथम तो वे समकालिक होते हैं, दूसरे इनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना अत्यल्प होती है । [ ८४ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210748
Book TitleJain Dharm ka Vilupta Sampraday Yapaniya
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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