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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार . एवम् धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मिथ्या है, अयथार्थ है तो, न तो उसका ज्ञान सम्यक (यथार्थ) मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नैश्चयिक चारित्र होगा और न चारित्र ही। यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और का आधार है। राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और चारित्र सम्यक् प्रतीत भी हों तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया सकते, वह तो संयोगिक प्रसंग मात्र है, ऐसा साधक भी दिग्भ्रांत के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्या सत्य को आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे जानेगा और क्या उसका समाचरण करेगा? दूसरी ओर यदि हम अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसे ज्ञान के पश्चात् नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है।
ही स्थान देना चाहिए। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद व्यवहार चारित्र--व्यवहार चारित्र का संबंध हमारे मन, वचन ही उत्पन्न हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक और कर्म की शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारणभूत नियमों से है।
___ अर्थ करते समय ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है ग्रन्थकार सामान्यतया व्यवहार चारित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच ।
कहते हैं कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जानें और दर्शन समिति आदि का समावेश है।
के द्वारा उस पर श्रद्धा करें।१९ व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के
पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसमें जो स्थायित्व होता है, वह सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध- स्थायित्व ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा में नहीं हो सकता। ज्ञानाभाव ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में
में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है काफी विवाद रहा है। कछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक मानते हैं ऐसी श्रद्धा वास्तविक श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का योगपद्य (समानान्तरता)
है। जिन-प्रणीत तत्त्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव स्वीकार किया है। आचार मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता
एवम् तार्किक परीक्षण के पश्चात् हो सकती है। यद्यपि साधनामार्ग का प्रश्न ही प्रबल रहा है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि
के आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञानप्रसूत दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता।१६ इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा ।
होना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दर्शन को प्राथमिकता दी गई है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी ने
"धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क के तत्त्व का विश्लेषण भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चरित्र के पहले स्थान करें।"२° इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यक दर्शन को ज्ञान दिया है।१७ आचार्य कन्दकन्द दर्शन पाहड में कहते हैं कि धर्म कपूव लना चाहिए आर श्रद्धापरक अथ म ज्ञान के पश्चात्। (साधनामार्ग) दर्शनप्रधान है।८
न केवल जैन-दर्शन में अपितु बौद्ध-दर्शन और गीता में लेकिन दूसरी ओर कछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान की ना
भा ज्ञान आर श्रद्धा
भी ज्ञान और श्रद्धा के संबंध का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। चाहे प्राथमिकता भी देखने को मिलती है। उत्तराध्ययन सत्र में उसी बुद्ध ने आत्मदीप एवम् आत्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उद्घोष अध्याय में मोक्षमार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का
किया हो, किन्तु बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान सभी स्थान प्रथम है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक निर्णय
युगों में मान्य रहा है। सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति स्वयं लेना अनुचित ही होगा।
बुद्ध कहते हैं मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है।२१ गीता में भी श्रद्धा या
भक्ति एक प्रमुख तथ्य है मात्र इतना ही नहीं, अपितु गीता और हमारे अपने दृष्टिकोण में इनमें से किसे प्रथम स्थान दिया
बौद्ध दर्शन दोनों में ही ऐसे सन्दर्भ हैं जिनमें ज्ञान के पूर्व श्रद्धा को जाए इसका निर्णय करने के पूर्व हमें दर्शन शब्द का क्या अर्थ
स्थान दिया गया है। ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में है, इसका निश्चय कर लेना चाहिए। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं--
श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक १. यथार्थ दृष्टिकोण और २. श्रद्धा। यदि हम दर्शन का यथार्थ
निकट आ जाते हैं। गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में आलवक दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते हैं तो हमें साधनामार्ग की दृष्टि से उसे
यक्ष से कहते हैं निर्वाण की ओर ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही
श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुष प्रज्ञा को प्राप्त వారందరరంగురువారసారంలో
పారదరసారసాగరరూరురురంగయerone
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