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________________ 50062000000000000 000000000000 R:096.00000000000000000 COCOOPac000000000 जन-मंगल धर्म के चार चरण ५६५ 94 सम्बन्धी सन्तुलन' कहते हैं। जब (भौतिक) विकास के लिए प्रकृति प्रस्तुत किया गया है। प्रो. सी. एन. वकील ने अपनी पुस्तकका सीमा से अधिक असंतुलित उपयोग किया जाता है, तब हमारे । 'इकोनॉमिक्स ऑफ काऊ प्रोटेक्शन' में बताया है-“हमें यह कभी पर्यावरण या वातावरण में कुछ परिवर्तन होता है। यदि इन न भूलना चाहिए कि मिट्टी, वनस्पति, पशु और मानव का परस्पर परिवर्तनों की प्रक्रिया का प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं बिठाया | गहरा सम्बन्ध है। जिस प्रकार मानव में जीवन है, पशु और वृक्ष जाता और परिस्थिति विज्ञान सम्बन्धी सन्तुलन कायम नहीं रखा आदि सजीव हैं, उसी प्रकार मिट्टी भी सजीव है। सुनने में यब बात जाता तो उससे न केवल विकास व्यय (विकास कार्य में समय, । भले ही अजीव लगे, पर अक्षरशः सत्य है। कोटि-कोटि अतिसूक्ष्म शक्ति और नैतिकता के अपव्यय) के बढ़ने का खतरा पैदा होता है, ऑर्गेनिज्म मिट्टी में सदा क्रियारत रहते हैं।" बल्कि उससे ऐसा असन्तुलन पैदा हो सकता है, जिससे पृथ्वी पर सत्रह प्रकार का संयम-प्रदूषण निवारणार्थ मनुष्य जाति का जीवन खतरे में पड़ सकता है।" इसी प्रकार का 2009 असन्तुलन प्रदूषण फैलाता है। भगवान महावीर ने जीव और अजीव दोनों प्रकार के पदार्थों 9 के प्रति १७ प्रकार के संयम बताए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) प्रकृति और जीवों के साथ मनुष्य का सम्बन्ध पृथ्वीकाय-संयम, (२) अप्काय-संयम, (३) तेजस्काय-संयम, (४) यह एक निश्चित तथ्य है कि प्राकृतिक पदार्थों तथा जिनमें वायुकाय-संयम, (५) वनस्पतिकाय-संयम, (६) द्वीन्द्रिय (जीव) Face जीवन का अस्तित्व है, चेतना है, ऐसे सजीव पदार्थों का मानव संयम, (७) त्रीन्द्रिय-संयम, (८) चतुरिन्द्रिय-संयम, (९) पंचेन्द्रियजीवन के साथ गहरा सम्बन्ध है। जिस प्रकार भगवद्गीता में कहा संयम, (१०) अजीव-काय-संयम, (११) प्रेक्षा-संयम, गया है-'परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ'-२ सभी सजीव- (१२) उपेक्षासंयम, (१३) अपहृत्य-संयम, (१४) प्रमार्जनासंयम, निर्जीव पदार्थ परस्पर एक-दूसरे के साथ आत्मीय भाव अथवा (१५) मन-संयम, (१६) वचन-संयम और (१७) काय-संयम।५ इन अपने जीवन के लिए सहायक मानकर चलेंगे तो परम श्रेय को १७ प्रकार के संयमों का अर्थ ही पृथ्वीकाय आदि ९ प्रकार के 6 0 प्राप्त करेंगे। इसी प्रकार जैनाचार्य उमास्वाति ने भी तत्त्वार्थसूत्र में जीवों के प्रति संयम रखना, उन जीवों को कष्ट हो, त्रास हो, ऐसी कहा-'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'-३ जीवों का स्वभाव परस्पर दूसरे प्रवृत्ति न करना। अजीवकाय संयम में प्रकृतिजन्य सभी निर्जीव पर उपग्रह-उपकार करना होना चाहिए।" यही कारण है कि पदार्थों के प्रति संयम की प्रेरणा है। प्रेक्षा, उपेक्षा, अपहृत्य एवं जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने कहा-"धम्म प्रमार्जनारूप संयम में प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय देखे, पूर्वापर का, चरमाणस्स पंच निस्सा ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-छकाए गणे राया परिणाम का विचार करे, जहाँ या जिस स्थान में अथवा जिस गिहवइ सरीरं।"४ जो व्यक्ति आध्यात्मिक धर्म का आचरण प्रवृत्ति से जीव हिंसा अधिक हो, जिससे अपने स्वास्थ्य, परिवार, (साधना) करना चाहता है, उसके लिए निम्नोक्त पाँच स्थानों का संघ, राष्ट्र या समाज को हानि हो, उस प्रवृत्ति के प्रति उपेक्षा करे, आश्रय (आलम्बन) लेना बताया गया है। जैसे कि-षट्कायिक जीव, जहाँ खींचना, खोदना, रगड़ना आदि घर्णण प्रवृत्ति हो, वहाँ भी गण, शासक, गृह-पति और शरीर। इस सूत्र में छह काया के जीवों संयम रखे, ताकि किसी जीव को पीड़ा न हो। मन से दूसरों को (अर्थात्-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीवों) के मारने, सताने, उत्पीडन करने का विचार न करे, वचन से भी शाप आश्रय को प्राथमिकता दी गई है। दूसरे दर्शन या धर्म जहाँ पृथ्वी, आदि का क्रोधादिपूर्वक आघातजनक वचन न बोले, न ही काया से पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवन का अस्तित्व प्रायः अंगोपांगों से किसी पर प्रहार करने आदि हिंसाजनक कृत्य-चेष्टा स्वीकार नहीं करते, वहाँ जैनधर्म ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और करें। यह १७ प्रकार का संयम है। वनस्पति में भी जीवन का अस्तित्व स्वीकार किया है। आज का पृथ्वी की हिंसा : पर्यावरण-असंतुलन तथा विनाश का हेतु जीव विज्ञान (जिओलॉजी) भी इस निष्कर्ष से सहमत हो चुका है कि पृथ्वी, जल और वनस्पति में भी जीवन है, उनमें भी सुषुप्त आज विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों के लिए खासकर पत्थर चेतना है, वे भी हर्ष शोक का अनुभव करते हैं। जैन-आगमों में तो के कोयलों के लिए पृथ्वी का खनन और जबर्दस्त दोहन किया जा पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनसपतिकाय, इन रहा है। भूवैज्ञानिकों का मत है कि यदि इसी प्रकार खनिज पदार्थों पाँच स्थावर जीवों के बारे में बहुत विस्तार से निरूपण किया गया का उपयोग किया गया तो कुछ ही वर्षों में उसके भण्डार निःशेष है। वे जीव कहाँ-कहाँ रहते हैं? उनका शरीर किस-किस प्रकार का हो जायेंगे। संसार में जब से औद्योगीकरण की लहर आई है, पृथ्वी है? वे कैसे-कैसे श्वासोच्छ्वास, आहार आदि ग्रहण करते हैं, का पेट फाड़ कर कोयले निकालते रहने से पत्थर के कोयलों के उनका विकास ह्रास कैसे-कैसे होता है, उनकी उत्कृष्ट आयू जलाने से उनकी धूल, कार्बन-डाइ- ऑक्साइड, सल्फर डाइकितनी-कितनी है? उनमें कितनी इन्द्रियाँ हैं, कितने प्राण हैं? ऑक्साइड तथा कुछ ऑर्गनिक गैसों के रूप में प्रदूषणकारी पदार्थों इत्यादि सभी प्रश्नों पर बहुत गहराई से विचार प्रस्तुत किया गया । की भरमार हो गई है। इसी प्रकार बारूदों के द्वारा जिस जमीन में है। साथ ही उनका साथ मानवजीवन का परस्पर उपकार और विस्फोट किया जाता है, वह जमीन नीचे धसती जाती है, कहीं-कहीं हर गहन सम्बन्ध भी बताया गया है। जिसे आगम के उद्धरण द्वारा । इसी के फलस्वरूप भूकम्प, नदियों में बाढ़, तूफान, समुद्र मेंE8 toa 500 0०-2003 यमनमनपण्लपणलणकएकतापहनन्यसायालयान 36000.0000000.00.000005 20200000.000. 00 D oolgation toDIODDY Keeperma990000.00 20.002096.00506:36.0.068
SR No.210738
Book TitleJain Dharm aur Paryavaran Santulan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandramuni
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size8 MB
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