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इस तरह जीव के साथ-साथ कर्म (अजीव ), कर्म आने, बंधने, कर्म- आस्रव रुकने, कर्म झरने तथा मुक्त होने को बतलाने रूप सात तत्व बतलाये हैं।' इन सातों तत्त्वों का विवरण जानकर बन्धन तथा मोक्ष की प्रक्रिया का श्रद्धान हो जाने पर आत्मा में सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ करता है ।
सम्यग्दर्शन उत्पन्न (प्रगट) होने का उपादान कारण 'दर्शन मोहनीय' (आत्मा की अनुभूति न होने देने वाला) कर्म का उपशम (कुछ समय तक कर्म का उदय न होना) या क्षय (कर्म का बिल्कुल नष्ट हो जाना) अथवा क्षयोपशम ( कुछ उदयाभावी क्षय, कुछ उपशम और कुछ उदय) होना है। दर्शन मोहनीय का उपशम होने से अन्तर्मुहूर्त तक उपशम सम्यक्त्व होता है। दर्शन मोहनीय का क्षय हो जाने से सदा के लिये क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है और दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है जो कि अन्तर्मुहूर्त और वर्ष कम एक कोटि पूर्व ६६ सागर तक (अधिक से अधिक) रहता है, तदनन्तर छूट जाता है।
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किन्तु इन सम्यक्त्वों को होने के लिये बहिरंग निमित्त कारण भी अवश्य होने चाहियें, सो नरकों में तीसरे नरक तक नारकी जीवों में सम्यग्दर्शन किसी को अपने मित्र देव द्वारा धर्म उपदेश सुनने से किसी को पहले भव का स्मरण आ जाने से और किसी को नारकीय यन्त्रणाओं (पीड़ाओं) के कारण चित्त में निर्मलता आने पर हो जाता है। नरको में देव तीसरे नरक तक ही जाते हैं, उससे आगे नहीं जाते, अतः चौथे नरक से सातवें नरक तक नारकी जीवों को सम्यग्दर्श न होने के दो ही कारण होते हैं - १. पूर्व भव स्मरण, २. वेदना का अनुभव ।
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तिर्यञ्च (पशु) गति में किसी पशु-पक्षी को किसी मुनि आदि द्वारा धर्म-उपदेश सुनने से किसी को पूर्व भय का स्मरण हो जाने से और किसी को जिनेन्द्र भगवान् की शान्त वीतराग मूर्ति का दर्शन करने से सम्यग्दर्शन हो जाता है। मनुष्यों को भी इन ही तीन कारणों से सम्यग्दर्शन होता है ।
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देव गति में किन्हीं देवों को तीर्थंकर, मुनि आदि का उपदेश सुनने से किन्हीं को तीर्थंकरों के कल्याणक देखने से किन्हीं को पहले भव का स्मरण हो जाने से और किन्हीं देवों को बड़े ऋद्धिधारक देवों को देखकर सम्यग्दर्शन हो जाता है। ये चारों कारण भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष तथा बारहवें स्वर्ग के देवों के लिये हैं । १३, १४, १५, १६वें स्वर्ग के देवों में ऋद्धिधारक देवों को देखने के सिवाय तीन कारणों से सम्यग्दर्शन होता है। नव प्रवेयकों के देवों में किसी को धर्म उपदेश सुनने से और किसी को पूर्व भव के स्मरण हो जाने से परिणामों में निर्मलता आने पर सम्यग्दर्शन हो जाता है। उनसे ऊपर अनुदिश तथा ५ अनुत्तर विमानों में रहने वाले सभी देव सम्यग्दृष्टि होते हैं।
इस तरह निमित्त और उपादान कारण मिलते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होने की संक्षेप से प्रक्रिया है । हमको देव, शास्त्र, गुरु में अटल भक्ति रखनी चाहिये चाहे जैसी विपत्ति क्यों न आ जाये किन्तु कुदेव, कुशास्त्र, कुधर्म, कुगुरु की बद्ध, मान्यता, भक्ति अपने मन में न आने दें, न उनकी स्तुति करें, न उन्हें नमस्कार करें। सातों तत्त्वों का स्वरूप अच्छी तरह समझ कर कर्म आसव और बन्ध के कारणों से अपने आपको बचाते रहने का यत्न करना चाहिये, संवर निर्जरा होने के कारणों को आचरण में लाना चाहिये तथा जिनवाणी का मन लगाकर स्वाध्याय करना चाहिये, चारित्र धारक गुरुओं से उपदेश सुनना चाहिए और जिनेन्द्र भगवान् का बड़ी श्रद्धा-भक्ति से दर्शन, विनय, पूजन करना चाहिये, जिससे हमारे आत्मा में अच्छे भाव, अच्छे संस्कार उत्पन्न हों और आत्मा शुद्धि की ओर अग्रसर हो । आत्मा को शुद्ध करने के लिये मनुष्य भव में सभी साधन उपलब्ध हैं, हमें उनसे लाभ उठाना चाहिये ।
पांच अणुव्रत
अहसाणुव्रत - मन-वचन और काय के कृत, कारित और अनुमोदना रूप नव प्रकार के संकल्पों से त्रस जीव का घात नहीं करना अणुव्रत है। यहां पर यद्यपि त्रस दो इन्द्रिय आदि के चलते फिरते जीवों की जानबूझकर हिंसा नहीं करना अहिंसाणुव्रत है, तथापि अणुव्रती अनावश्यक स्थावर एकेन्द्रिय जीवों का घात भी इरादतन नहीं करेगा, क्योंकि उसके हृदय में दया का महान् उदय उद्भूत है । वह नहीं चाहता कि मेरे द्वारा किसी जीव का संहार हो । वह तो यही भावना करता है कि हे भगवान् मेरी आत्मा में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो, जिससे मैं जीव मात्र का रक्षक बनूं, मेरे द्वारा जानकर व अनजाने कुछ भी स्थावर एकेन्द्रिय जीवों का विनाश होता है, वह मेरी ही दुर्वलता या कमजोरी के कारण ही होता है, क्योंकि पर गृहस्थी के अन्दर रहकर स्थावर जीवों का हिंसा से
“जीवाजीवात्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तावम्", तत्त्वार्थ सूत्र, १/४
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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