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जब तक शरीर के साथ योजित होकर जीवन जीती है, तब तक एकान्त प्रवृत्ति और एकान्त निवृत्ति की बात करना समुचित नहीं है। यद्यपि जैन परम्परा को हम निवृत्ति मार्गी परम्परा कहते है, किन्तु उसे भी एकान्त रुप से निवृत्ति प्रधान मानना, एक भ्रांति ही होगी। यद्यपि जैन धर्म के आचार ग्रन्थों में प्रमुख रुप से निवृत्ति मार्ग की चर्चा देखी जाती है, किन्तु उनमें भी अनेक संदर्भ ऐसे हैं। जहाँ निवृत्ति और प्रवृत्ति के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास किया गया है। अत: जो विचारक जैन धर्म को एकांत रुप से निवृत्तिपरक मानकर उसके धर्म-ग्रन्थों में उपलब्ध सामाजिक और व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुत: अज्ञान में ही जीते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि जैन आचार्यों ने तप और त्याग पर अधिक बल दिया है, किन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि व्यक्ति अपनी वासनाओं से ऊपर उठे। जैन-अचार्यों ने जितना भी उपदेशात्मक और वैराग्य-प्रधान साहित्य निर्मित किया है, उसका लक्ष्य मनुष्य को वासनात्मक जीवन से ऊपर उठाकर उसका आध्यात्मिक विकास करना है उनकी दृष्टि में धर्म और साधना व्यक्ति के आध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिए है और अध्यात्म का अर्थ है वासनाओं पर विवेक का शासन। फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि कोई धर्म या साधना-पध्दति जैविक और सामाजिक जीवन-मूल्यों की पूर्णत: उपेक्षा नहीं कर सकती है, क्योंकि यही वह आधार भूमि है जहां से आध्यात्मिक विकास यात्रा आरम्भ की जा सकती है। जैनों के अनुसार धर्म और अध्यात्म का कल्पवृक्ष समाज और जीवन के आंगन में ही विकसित होता है। धार्मिक होने के लिये सामाजिक होना आवश्यक है। जैन धर्म में जिन-कल्प और स्थविर-कल्प के रुप में जिन दो आचार मार्गों का प्रतिपादन है, उनमें स्थविर-कल्प, जो जन-साधारण के लिए है, समाज जीवन या संघीय जीवन में रहकर ही साधना करने की अनुशंसा करता है।
वस्तुत: समाज-जीवन या संघीय-जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का समेल है। समाज जीवन भी त्याग के बल पर ही खड़ा होता है। जब व्यापक हितों के लिये क्षुद्र स्वार्थो के विसर्जन की भावना बलवती होती है, तभी समाज खडा होता है। अत: समाज-जीवन या संघीय-जीवन में सजन और विसर्जन तथा राग और विराग का सुन्दर समन्वय है। जिसे आज हम "धर्म" कहते हैं वह भी पूर्णत: निजी या वैयक्तिक साधना नहीं है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ स्वस्थ समाज का निर्माण भी अनुस्यूत है।
जैन आगमों में धर्म का स्वरुप: धर्म की विभिन्न व्याखाएं और परिभाषएं दी गई है। पूर्व-पश्चिम के विद्वानों ने धर्म को विविध रूपों में देखने और समझने का प्रयत्न किया है। सामान्यतया आचार और विचार की एक विशिष्ट प्रणाली को धर्म कहा जाता है किन्तु जहां तक जैन परम्परा का प्रश्न है, उसमें धर्म को स्व-स्वरुप की उपलब्धि के अथवा आध्यात्मिक विकास के एक साधन के रुप में माना गया है। जैनाचार्यों ने धर्म की अनेक परिभाषा प्रस्तुत की है, उनमें एक परिभाषा "वत्थसहावों धम्मो" के रुप में की है। जब हम यह कहते हैं कि आग का धर्म उष्णता और जल का धर्म शीतलता है तो यहां धर्म से तात्पर्य उनके स्वभाव से ही होता है। यद्यपि वस्तु-स्वभाव के रुप में धर्म की यह परिभाषा सत्य और प्रामाणिक है, किन्तु इससे धर्म के स्वरुप के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं मिलता है। जब हम धर्म की व्याख्या वस्तु-स्वभाव के रुप में करते हैं, तो हमारे सामने मूल प्रश्न मनुष्य के मूल स्वभाव के सम्बन्ध में ही उत्पन्न होता है। मनुष्य एक चेतन प्राणी है और एक चेतन १) धम्मोवत्थु तहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रणयत्तयं च धम्मो जावाणां रक्खनं धम्मे।। बारस्व अणुवेक्खा। कर्तिकय।
कर्तव्य के प्रति निष्ठा जहां दृढ होती हैं, वहां मन में उत्साह की औढ में नैराश्य आता ही नहीं है।
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