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________________ 'हे क्षपकराज ! जिस सल्लेखनाको तुमने अब तक धारण नहीं किया था उसे धारण करनेका सुअवसर तुम्हें आज प्राप्त हुआ है । उस आत्महितकारी सल्लेखनामें कोई दोष न आने दो। तुम परीषहोंक्षुधादिके कष्टोंसे मत धबड़ाओ। वे तुम्हारे आत्माका कुछ बिगाड़ नहीं सकते । उन्हें तुम सहनशीलता एवं धीरतासे सहन करो और उनके द्वारा कर्मोकी असंख्यगुणी निर्जरा करो।' 'हे आराधक ! अत्यन्त दुःखदायी मिथ्यात्वका बमन करो, सुखदायी सम्यक्त्वका आराधना करो, पंचपरमेष्ठीका स्मरण करो, उनके गुणोंमें सतत अनुराग रखो और अपने शुद्ध ज्ञानोपयोगमें लीन रहो । अपने महाव्रतोंकी रक्षा करो. कषायोंको जीतो. इन्द्रियोंको वशमें करो. सदैव आत्मामें ही आत्माका ध्यान करो, मिथ्यात्वके समान दःखदायी और सम्यक्त्वके समान सूखदायी तीन लोकमें अन्य कोई वस्त नहीं है । देखो, धनदत्त राजाका संघश्री मन्त्री पहले सम्यग्दष्टि था. पीछे उसने सम्यक्त्वकी विराधना की और मिथ्यात्वका सेवन किया, जिसके कारण उसकी आँखें फट गईं और संसार-चक्रमें उसे घूमना पड़ा। राजा श्रेणिक तीव्र मिथ्यादष्टि था, किन्तु बादको उसने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया, जिसके प्रभावसे उसने अपनी बंधी हुई नरककी स्थितिको कम करके तीर्थङ्कर-प्रकृतिका बन्ध किया और भविष्यत्कालमें वह तीर्थङ्कर होगा।' ___ 'इसी तरह हे क्षपक ! जिन्होंने परीषहों एवं उपसर्गोको जीत करके महाव्रतोंका पालन किया, उन्होंने अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त किया है। सुकमालमुनिको देखो, वे जब वनमें तप कर रहे थे और ध्यानमें मग्न थे, तो शृगालिनोने उन्हें कितनी निर्दयतासे खाया। परन्तु सुकमालस्वामी जरा भी ध्यानसे विचलित नहीं हुए और घोर उपसर्ग सहकर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। शिवभूति महामुनिको भी देखो, उनके सिरपर आँधीसे उड़कर घासका ढेर आपड़ा, परन्तु वे आत्म-ध्यानसे रत्तीभर भी नहीं डिगे और निश्चल भावसे शरीर त्यागकर निर्वाणको प्राप्त हुए। पाँचों पाण्डव जब तपस्या कर रहे थे, तो कौरवोंके भानजे आदिने पुरातन वैर निकालनेके लिए गरम लोहेकी सांकलोंसे उन्हें बाँध दिया और कीलियाँ ठोक दीं, किन्तु वे अडिग रहे और उपसर्गोको सहकर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन मोक्ष गये तथा नकुल और सहदेव सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुए। विद्युच्चरने कितना भारी उपसर्ग सहा और उसने सद्गति पाई।' 'अतः हे आराधक ! तुम्हें इन महापुरुषोंको अपना आदर्श बनाकर धीर-वीरतासे सब कष्टोंको सहन करते हुए आत्म-लीन रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी समाधि उत्तम प्रकारसे हो और अभ्युदय तथा निःश्रेयसको प्राप्त करो।' इस तरह निर्यापक मुनि क्षपकको समाधिमरणमें निश्चल और सावधान बनाये रखते हैं । क्षपकके समाधिमरणरूप महान् यज्ञकी सफलतामें इन निर्यापक साधुवरोंका प्रमुख एवं अद्वितीय सहयोग होनेकी प्रशंसा करते हुए आचार्य शिवार्यने लिखा है : ___ 'वे महानुभाव (निर्यापक मुनि) धन्य हैं, जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर बड़े आदरके साथ क्षपककी सल्लेखना कराते हैं।' १. ते चि य महाणुभावा धण्णा जेहिं च तस्स खवयस्स। सव्वादर-सत्तीए उवविहिदाराधणा सयला ।-भ० आ०, गा० २००० । -२११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210724
Book TitleJain Darshan me Sallekhana Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size970 KB
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