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________________ इसी तथ्यको दृष्टिमें रखकर संवेगी जैन श्रावक या जैन साधु अपना मरण सुधारनेके लिए उक्त परिस्थितियोंमें सल्लेखना ग्रहण करता है । वह नहीं चाहता कि उसका शरीर-त्याग रोते-विलपते, संक्लेश करते और राग-द्वेषकी अग्निमें झुलसते हुए असावधान अवस्थामें हो, किन्तु दृढ़, शान्त और उज्ज्वल परिणामोंके साथ विवेकपूर्ण स्थितिमें वीरोंकी तरह उसका शरीर छुटे । सल्लेखना मुमुक्ष श्रावक और साधु दोनोंके इसी उद्देश्यकी पूरक है । प्रस्तुतमें उसीके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डाला जाता है । सल्लेखना और उसका महत्त्व 'सल्लेखना' शब्द जैन-धर्मका पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-'सम्यककाय-कषाय-लेखना सल्लेखना'-सम्यक् प्रकारसे काय और कषाय दोनोंको कृश करना सल्लेखना है । तात्पर्य यह कि मरणसमयमें की जानेवाली जिस क्रिया-विशेषमें बाहरी और भीतरी अर्थात शरीर तथा रागादि दोषोंका, उनके कारणोंको कम करते हए प्रसन्नतापूर्वक बिना किसी दबावके स्वेच्छासे लेखन अर्थात् कृशीकरण किया जाता है उस उत्तम क्रिया-विशेषका नाम सल्लेखना है। उसीको 'समाधिमरण' कहा गया है। यह सल्लेखना जीवन भर आचरित समस्त व्रतों, तपों और संयमको संरक्षिका है। इसलिए इसे जैन-संस्कृतिमें 'व्रतराज' भी कहा है। अपने परिणामोंके अनुसार प्राप्त जिन आय, इन्द्रियों और मन, वचन, काय इन तीन बलोके संयोगका नाम जन्म है और उन्हीं के क्रमश: अथवा सर्वथा क्षीण होनेको मरण कहा गया है । यह मरण दो प्रकारका है-एक नित्यमरण और दूसरा तद्भव-मरण । प्रतिक्षण जो आयु आदिका ह्रास होता रहता है वह नित्य-मरण है तथा उत्तरपर्यायकी प्राप्तिके साथ पूर्व पर्यायका नाश होना तद्भव-मरण है। नित्यमरण तो निरन्तर होता रहता है, उसका आत्म-परिणामोंपर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता । पर तद्भव-मरणका कषायों एवं विषय-वासनाओंकी न्यनाधिकताके अनुसार आत्म-परिणामोंपर अच्छा या बुरा प्रभाव अवश्य पड़ता है। इस तद्भव-मरणको सुधारने और अच्छा बनानेके लिये ही पर्यायके अन्त में 'सल्लेखना' रूप अलौकिक प्रयत्न किया जाता है । सल्लेखनासे अनन्त संसारकी कारणभूत कषायोंका आवेग उपशमित अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म-मरणका प्रवाह बहुत ही अल्प हो जाता अथवा बिलकुल सूख जाता है । जैन लेखक आचार्य शिवार्य सल्लेखनाधारण पर बल देते हुए कहते हैं कि 'जो भद्र एक पर्यायमें समाधिमरणपूर्वक मरण करता है वह संसारमें सात-आठ पर्यायसे अधिक परिभ्रमण नहीं करता-उसके बाद वह अवश्य मोक्ष पा लेता है।' आगे वे सल्लेखना और सल्लेखना-धारकका महत्त्व बतलाते हुए यहाँ तक । (क) 'सम्यक्काय-कषाय-लेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापन___ क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना ।'-पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि ७-२२ । (ख) 'मारणान्तिकी सल्लेखनां ज्योषिता'-आ० गृद्धपिच्छ, तत्त्वार्थसू० ७-२२ । 'स्वायुरिद्रियबलसंक्षयो मरणम् । स्वपरिणामोपात्तस्यायुषः इन्द्रियाणां बलानां च कारणवशात् संक्षयो मरणमिति मन्यन्ते मनीषिणः । मरणं द्विविधम, नित्यमरणं तदभवमरणं चेति । तत्र नित्यमरणं समये समये स्वायुरादीनां निवृत्तिः । तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्त्यनन्तरोपश्लिष्टं पूर्वभवविगमनम ।' -अकलङ्कदेव, तत्त्वार्थवा० ७-२२ । ३. 'एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण ह सो हिंडदि बहुसो सत्तटू-भवे पमत्तूण ॥'-भगवती आरा० । -२०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210724
Book TitleJain Darshan me Sallekhana Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size970 KB
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