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________________ संयोगमेवेह वदन्तितज्ज्ञा, लोक चक्रेण रथः प्रयाति। अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौ, सौ संप्रभुक्तौ नगरं प्रविष्टौ॥ मनोविज्ञान की दृष्टि से भी विचार करें तो ज्ञात होगा कि सम्यग्दर्शन आदि तीनों में तीन मानसिक शक्तियों का समायोजन किया गया है ज्ञान, इच्छा प्रयत्न (क्रिया)। इनमें ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप है, इच्छा सम्यग्दर्शन रूप और प्रयत्न सम्यक्चारित्र रूप है। इन तीनों घटकों का एकत्व और तालमेल जैसे लोक व्यवहार में सफलता प्राप्त कराता है, वही स्थिति मुक्ति प्राप्ति के लिये भी समझना चाहिये कि सम्यग्दर्शन आदि तीनों की पूर्ण एकता आवश्यक है। केवल पृथक-पृथक ज्ञानादि से मुक्ति प्राप्त नहीं होगी। ऊपर के दृष्टान्त में भी यही स्पष्ट किया गया है। __मुक्ति अभावात्मक नहीं है सम्यदर्शन आदि तीनों साधनों की पूर्णता और एकता होने पर मुक्ति प्राप्त होती है। परन्तु वह हमारे लिए प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष है। इसलिये कतिपय व्यक्ति मुक्ति की सत्ता में शंका करते हैं। इसका आशय यह हुआ कि किसी ने अपने परदादा को नहीं देखा और कहे कि मेरे परदादा नहीं थे तो कौन उसकी बात पर विश्वास करेगा? मोक्ष के अस्तित्व के विषय में शंका करने वाली इसी प्रकार के माने जायेंगे। शास्त्रीय प्रमाणों से मोक्ष के अस्तित्व की सिद्धि इस प्रकार है - __ जैसे भविष्य में होने वाले चन्द्र-सूर्य ग्रहण आदि का ठीक-ठीक ज्ञान ज्योतिशास्त्र से हो जाता है कि अमुक दिन, अंश, क्षेत्र में ग्रहण होगा। इसी प्रकार सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम से मुक्ति के अस्तित्व का ज्ञान होता है। अनुमान प्रमाण से भी मुक्ति का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे धुरे के घूमने घटीयंत्र घूमता है। यदि बैलों का घूमना रूक जाये तो धुरे का और धुरे के रूकने पर घटीयंत्र का घूमना बन्द हो जाता है। इसी प्रकार कर्मोदय रूपी बैलों के चलने पर ही चातुर्गतिक रूप संसार धुरे का चक्र घूमता है और चतुर्गति रूपी धुरा ही अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक आदि वेदना रूपी घटीयंत्र को घुमाता रहता है। कर्मोदय की निवृत्ति हो जाने पर चतुर्गति का चक्र रूक जाता है और उसके रूक जाने पर संसार रूपी घटी यंत्र का चलना भी बंद हो जाता है। क्योंकि कारण के अभाव में कार्य नहीं होता है संसार रूपी घटीयंत्र के रूकने का नाम ही मुक्ति है। सारांश यह कि समस्त दुःखों और दुःख के हेतुभूत कर्मों का विनाश हो जाने पर आत्मा की जो स्थिति बनती है, वह मोक्ष है। अतः उसको अभाव रूप नहीं माना जा सकता है। फिर भी कपोल कल्पनाओं से घिरे हुए शंकाग्रस्त रहें तो भले रहें। यद्यपि अन्यान्य दर्शनों में भी मुक्ति का विचार किया गया है। किन्तु प्रकृत में शीर्षक के अनुसार जैनदर्शन के मुक्ति विषयक विचारों को प्रस्तुत किया है। . खजांची मोहल्ला बीकानेर 334001 राजस्थान (167) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.210720
Book TitleJain Darshan Sammat Mukta Mukti Swarup Sadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size863 KB
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