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પૂજ્ય ગુરૂદેવ વિવય પં. નાનચન્દ્રજી મહારાજ જન્મશતાલિદ સ્મૃતિગ્રંથ
पर प्रतिबंध लगाना हिंसा है। इनमें से यदि किसी एक भी प्राग को स्वतंत्रता में बाधा पहुंचाई जाती है तो वह हिंसा है। स्वतंत्रता का यह अहिंसक आधार कितना व्यापक और लोक मांगलिक है। जब हम किसी दूसरे के चलने फिरने पर रोक लगाते हैं तो यह कार्य जीव के शरीर बलप्राण की हिंसा है। जब हम किसी प्राणी के बोलने पर प्रतिबंध लगाते हैं तो बह वचन बल प्राण की और जब हम किसी के स्वतंत्र चिन्तन पर प्रतिबन्ध लगाते हैं तो वह मनोबल प्राण की हिंसा है। इसी प्रकार किसी के देखने सुनने आदि पर प्रतिबंध लगाना विभिन्न प्राणों की हिंसा है। कहना नहीं होगा कि हमारे संविधान में मूल अधिकारों के अन्तर्गत लिखने, बोलने गमनागमन करने आदि के जो स्वतंत्रता के अधिकार दिये गये हैं, वे भगवान महावीर के इसी स्वातंत्र्य वोध के परिणाम हैं।
भगवान महावीर का स्वातंत्र्य बोध उनकी व्रत साधना के माध्यम से सामाजिक जीवन - पद्धति से जुड़ता है। अहिंसा के साथ - साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, इच्छा परिमाण आदि व्रत व्यक्ति को संयमित और अनुशासित बनाने के साथ साथ दूसरों के अधिकारों की रक्षा और उनके प्रति आदर भाव को बढ़ावा देते हैं। अचौर्य और इच्छापरिमाण व्रतों की आज के युग में बड़ी सार्थकता है। अचौर्यव्रत व्यवहार शुद्धि पर विशेष वल देता है। इस व्रत में व्यापार करते समय अच्छी वस्तु दिखा कर घटिया दे देना, किसी प्रकार की मिलावट करना, झूठा नाप तौल तथा राज्य-व्यवस्था के विरुद्ध आचरण करना निषिध्द है। यहां किसी प्रकार की चोरी करना तो वजित है ही, किन्तु चोर को किसी प्रकार की सहायता देना या चुराई गईं वस्तु को खरीदना भी वजित है। आज की बढ़ती हुई तस्करवृत्ति चौरवाजारी, रिश्वतखोरी, टेक्स चोरी आदि सब महावीर की दृष्टि से व्यक्ति को पाप की ओर ले जाते हैं, उसे पराधीन बनाते हैं। इन सबकी रोक से ही व्यक्ति स्वतंत्रता का सही अनुभव कर सकता है।
महावीर की दृष्टि में राजनैतिक स्वतंत्रता ही मुख्य नहीं है। उन्होंने सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता पर भी बल दिया। उन्होंने किसी भी स्तर पर सामाजिक विषमता को महत्व नहीं दिया। उनकी दृष्टि में कोई जन्म से ऊंचा नीचा नहीं होता, व्यक्ति को उसके कर्म ही ऊंचा नीचा बनाते हैं। उन्होंने परमात्मदशा तक पहुंचने के लिये सब लोगों और सब प्रकार के साधनामागियों के लिये मुक्ति के द्वार खोल दिये। उन्होंने पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होना बतलाया-तीर्थ सिद्ध, अतीर्थसिद्ध, तीर्थकर सिद्ध, अतीर्थंकर सिद्ध, स्वयंबुद्ध सिद्ध, प्रत्येक वुद्ध सिद्ध, बुद्ध-बोधित सिद्ध, स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुसंक लिग सिद्ध, स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध, गृहस्थलिंग सिद्ध, एक सिद्ध अनेक सिद्ध (पन्नवंणा पद १, जीव प्रज्ञापन प्रकरण) उनके धर्मसंघ में कुम्हार, माली, चाण्डाल आदि सभी वर्ग के लोग थे। उन्होंने चन्दनवाला जैसी साध्वी को अपने संघ की प्रमुख बनाकर नारी जाति को सामाजिक स्तर पर ही नहीं आध्यात्मिक साधना के स्तर पर भी पूर्ण स्वतंत्रता का भान कराया।
गृहस्थों के लिये महावीर ने आवश्यकताओं का निषेध नहीं किया। उनका बल इस बात पर था कि कोई आवश्यकता से अधिक संचय-संग्रह न करे। क्योंकि जहां संग्रह है, आवश्यकता से अधिक है, वहाँ इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कहीं आवश्यकता भी पूरी नहीं हो रही है। लोग दुःखी और अभावग्रस्त हैं। अत: सब स्वतंत्रतापूर्वक जोवनयापन कर सकें इसके लिये इच्छाओं का संयम आवश्यक है। यह संयमन व्यक्ति स्तर पर भी हो, सामाजिक स्तर पर भी हो और राष्ट्र स्तर पर भी हो, इसे उन्होंने परिग्रह की मर्यादा या इच्छा का परिमाण कहा । इससे अनावश्यक रूप से धन कमाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा और राष्ट्रों की आर्थिक प्रतिद्वन्दिता रुकेगी। शोषण और उपनिवेशवाद की प्रवृत्ति पर प्रतिवन्ध लगेगा।
महावीर ने कहा जैसे सम्पत्ति आदि परिग्रह है वैसे ही हठवादिता, विचारों का दुराग्रह आदि भी परिग्रह है। इससे व्यक्ति का दिल छोटा और दृष्टि अनुदार बनती है। इस उदारता के अभाव में न व्यक्ति स्वयं स्वतंत्रता की अनुभूति कर पाता है और न दूसरों को वह स्वतंत्र वातावरण दे पाता है। अतः उन्होंने कहा-प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है। उसे अपेक्षा से देखने पर ही, सापेक्ष दृष्टि से ही, उसका सच्चा व समग्र ज्ञान किया जा सकता है। यह सोचकर व्यक्ति को अनाग्रही होना चाहिये। उसे यह सोचना चाहिये कि वह जो कह रहा है वह सत्य है, पर दूसरे जो कहते हैं उसमें भी
जैन दर्शन में स्वातन्त्र्य बोध
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