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Jain Edm
दरबारीलाल जैन : जैनदर्शन में संलेखना का महत्वपूर्ण स्थान ४५५ समझना कठिन नहीं है. यथार्थ में सांसारिक जन संसार (विषय-कपाय के पोषक चेतनाचेतन पदार्थों) को आत्मीय समझते हैं. अतः उनके छोड़ने में उन्हें दुःख का अनुभव होता है और उनके मिलने में हर्ष होता है. परन्तु आत्मा तथा शरीर के भेद को समझने वाले ज्ञानी वीतरागी संत न केवल विषय कषाय की पोषक बाह्य वस्तुओं को ही, अपितु अपने शरीर को भी बन्धन मानते हैं. अतः उसके छोड़ने में उन्हें दुःख न होकर प्रमोद होता है. वे अपना वास्तविक निवास स्थान- मुक्ति को समझते हैं तथा सद्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, त्याग, संयम आदि आत्मीय गुणों को अपना यथार्थ परिवार मानते हैं. फलतः साधुजन यदि अपने पार्थिव शरीर के त्याग को मृत्युमहोत्सव कहें तो कोई आश्चर्य नहीं है. वे अपने रुग्ण, असक्त, कुछ क्षणों में जाने वाले और विपदस्त जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़ने तथा नये शरीर को ग्रहण करने में उसी तरह उत्सुक एवं प्रमुदित होते हैं जिस तरह कोई व्यक्ति अपने पुराने, जीर्ण, मलिन और काम न दे सकने वाले वस्त्र को छोड़ने में तथा नवीन वस्त्र के परिधान में अधिक प्रसन्न होता है. '
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इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर जैन श्रावक या साधु अपना मरण सुधारने के लिये शारीरिक विशिष्ट परिस्थितियों में सल्लेबना (समाधिमरण) ग्रहण करता है. वह नहीं चाहता कि शरीर त्याग, रोते-बिलखते लड़ते-झगड़ते, संस्तेच करते और रागद्वेष की भट्टी में जलते हुए असावधान अवस्था में हो, किन्तु दृढ़, शान्त और उज्जवल परिणामों के साथ विवेकपूर्ण स्थिति में वीरों की तरह उसका पार्थिव शरीर छूटे सल्लेखना मुमुक्षु श्रावक या साधु के इसी उद्देश्य की पूरक है. प्रस्तुत लेख में इसी के सम्बन्ध में जैन दृष्टि से कुछ प्रकाश डाला जा रहा है.
सल्लेखना का अर्थ
'सल्लेखन' शब्द जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है. इसका अर्थ है 'सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेखना – सम्यक् प्रकार से काय और कषाय दोनों को कृश करना सल्लेखना है. जिस क्रिया में बाहरी शरीर का और भीतरी रागादि कषायों का, उनके निमित्त कारणों को कम करते हुए प्रसन्नतापूर्वक विना किसी दबाव के स्वेच्छा से लेखन अर्थात् कृशीकरण किया जाता है, उस क्रिया का नाम सल्लेखना अथवा समाधिमरण है. यह यावज्जीवन पालित एवं आचरित समस्त व्रतों तथा चारित्र की संरक्षिका है, इसलिए इसे 'व्रतराज' कहा गया है. श्रावक के द्वारा द्वादश व्रतों और साधु के द्वारा महाव्रतों के अनन्तर पर्याय के अन्त में इसे ग्रहण किया जाता है. 3
सल्लेखना का महत्त्व और उसकी आवश्यकता
अपने परिणामों के अनुसार प्राप्त जिन आयु, इन्द्रियों और मन, वचन, काय, इन तीन बलों के संयोग का नाम जन्म है, उन्हीं के क्रमशः अथवा सर्वथा क्षीण होने को मरण कहा गया है. यह मरण दो प्रकार का है—एक नित्यमरण और दूसरा तद्भवमरण. प्रतिक्षण जो आयु आदि का ह्रास होता रहता है वह नित्यमरण है तथा शरीर का समूल नाश हो जाना तद्भव मरण है. नित्य मरण तो निरन्तर होता रहता है, उसका आत्मपरिणामों पर विशेष कोई प्रभाव नहीं
१. (क) जीणं देहादिकं सर्वं नूतनं जायते यतः ।
स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातोत्थिर्यथा ॥ - शान्तिसोपान, मृत्युमहोत्सव, श्लो० १५.
(ख) वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णति नरो पराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देहो ॥ गीता २-२२
२. सम्यक्कायकपाय लेखना सल्लेखना । कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कपायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना |
- सर्वार्थसिद्धि । ७-२२.
३. मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता - त० सू० ७-२२
४.
मरणम् खरियामोतयद्रियाणां
संयो मरामिति मन्यन्ते मनीषा
मरणं द्विविधम्, नित्यमरणं तद्द्भवमरणं चेति तत्र नित्यमरणं समये समये स्वायुरादीनां निवृत्तिः तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्त्यनन्तरोपश्लिष्टं पूर्वभव निगमनम् - भट्ट अकलंकदेव, तत्त्वार्थराज वार्तिक ७ - २२.